SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के अलावा उसके पास बचा ही क्या था । सच ही कहा है बारे में सोचा गया अहित, स्वयं का ही अहित करता है । - माया कषाय से इस जीव का अनर्थ ही होता है । ज्ञानार्णव ग्रंथ में कहा है – “इहाकीर्ति समादत्ते, मृतो यात्येव दुर्गतिम् । मायाप्रपंचदोषेण जनोप्यं जिह्मिताशयः ।" जिसका कुटिल अभिप्राय है, हृदय छोटा है, उसको इस लोक में भी बदनामी है, अपयश है और मरकर दुर्गतियों में जायेगा। लोग वैभव सम्पदा के लिये अनेक प्रकार से मायाचारी करते हैं, इसलिये इस धन-सम्पदा का नाम ही माया रख दिया । उसके तो बड़ी माया है। अरे! माया नाम तो कपट का है । देखो धन-वैभव का ही नाम कपट रख दिया। इस माया में सार कुछ भी नहीं है । उस देश में लोग गाने लगे हैं भारतीय संस्कृति में जहाँ आत्मा और परमात्मा को महत्त्व दिया जाता था, आज उसका स्थान पैसे ने ले लिया है। पैसा ही परमेश्वर बन गया है। अब तो व्यक्ति का एक ही लक्ष्य है जैसे तैसे कैसे भी हो, बस पैसा हो । किसी भी मार्ग से आये, पर पैसा हो । आज व्यक्ति ने पैसे को इतनी प्रतिष्ठा दे दी है कि वो परमेश्वर की तरह पूजा जाने लगा है। जिस देश में पहले कभी कहा जाता था भज गोविन्दं, भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते । - दूसरों के - भज कलदारं, भज कलदारं, कलदारं भज मूढमते । पैसा भजो यह सोच बन गई है, क्योंकि पैसे को हमने अपनी प्रतिष्ठा का आधार बना लिया है। पर ध्यान रखना, पैसा तुम्हें इस लोक में प्रतिष्ठा दिला सकता है, पर परलोक में कोई पक्षपात नहीं होता । वहाँ तो जैसी करनी वैसी भरनी के आधार पर न्याय होता है । 195
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy