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________________ क्या था, कोई भी कपड़ा आता, उसका मन ज्योंही कपड़े को मारने का होता, कि नौकर उसे सावधान करते-उस्ताद जी! झंडी। उस्ताद जी तुरन्त सावधान हो जाते | ये रोज का क्रम था। एक दिन बढ़िया मलमल का कपड़ा आया । उस कपड़े को देखते ही दर्जी के मुँह में लार टपक आई। जैसे ही वह कपड़े का काटने लगा तो नौकर ने कहा-उस्ताद जी झंडी। तो उस्ताद जी भी पूरे उस्ताद थे, कहने लगे - अरे ! इस रंग का कपड़ा वहाँ थोड़े है | यही हमार मन की दुर्बलता है, मायाचारी है, जो हमारे स्वयं के साथ हमारे द्वारा ही नाइंसाफी, बेईमानी का कारण बन जाती है | दसरों को ठगकर धोखा देकर हम भले थोडी देर के लिये आनन्दित हो जायें और अपने को चतुर मानने लगें, पर यह ध्यान रखना भले ही हम दूसरों को छलें, पर छाले तो हमारी अपनी आत्मा पर ही पड़ेंगे | यदि हमारे मन, वचन, काय टेड़े रहेंगे, तो आत्मा व परमात्मा के दर्शन करना कभी भी संभव नहीं है। जा दूसरों को गड्ढा खोदता है, वह स्वयं ही उसमें गिरता है। मायाचारी करते समय व्यक्ति सोचता है, मेरी मायाचारी को काई नहीं दख रहा, पर ध्यान रखना यह मायाचारी छिपाये छिप नहीं सकती। कपट छिपाते न छिपे, छिप न माटा भाग | दाबी दूबी न रहे, रुई लपेटी आग ।। मनुष्य अपने पाप को छिपाने का प्रयत्न करता है, पर वह रुई में लपेटी आग के समान स्वयमेव प्रकट हो जाता है। किसी का जल्दी प्रकट हो जाता है और किसी का विलम्ब से, पर यह निश्चित है कि प्रकट अवश्य होता है| पाप के प्रकट होने पर मनुष्य का सारा बड़प्पन समाप्त हो जाता है और छिपान के कारण संक्लेशरूप (192
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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