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________________ दीवान चौंका और अहंकार स बोला – 'मैं भी देखता हूँ, कि तू कैसे जाती है?' उसे तो यह विश्वास था कि मैंने लक्ष्मी का जमीन के भीतर गाड़ करके रक्खा है, यह कैसे जा सकती है? इस प्रकार लक्ष्मी और दीवान के बीच बातचीत बढ़ चली। तब दीवान कमर में बँधी तलवार निकालकर बोला-ला मैं दखता हूँ तू किस प्रकार जाती है? इतने में राजा की आँख खुली तो वह अपने ऊपर तलवार देखकर विचारने लगा कि यह मेरा ही दीवान यहाँ मेरी हत्या करना चाहता था, अभी इसका यहाँ कुछ कहना उचित नहीं, क्योंकि बात बढ़ने पर यह मुझे यहीं मार डालेगा। दीवान यह सोचकर कि मैं यदि सत्य बात कहूँ ता राजा ता क्या किसी को भी विश्वास नहीं हो सकता, तो दोनों चुपचाप चले । राजा न दरबार में आते ही हुक्म दिया कि दीवान को देश से निकाल दो और उसकी सारी सम्पत्ति राजसात कर लो। ऐसा ही किया गया । बड़े-बड़े राजा महाराजा जिनमें कोटि सुभटों के बराबर बल था, उन्होंने अपनी लक्ष्मी को स्थिर रखने के लिये पट्ट बाँध लिया, लेकिन यह लक्ष्मी उन बड़ों की भी स्थिर नहीं रह सकी । इस लक्ष्मी को सदा रखने के लिये बड़े-बड़े श्री मन्तों द्वारा ऐस सुभटों, जिनमें महान बल था, उनके द्वारा रक्षा करायी गयी, फिर भी यह लक्ष्मी इतनी चंचल है कि लोगों क देखते - देखते ही विलय का प्राप्त हो गयी। इन परपदार्थों का क्या विश्वास? हमारे मन में यह बात दृढ़रूप से जम जानी चाहिये कि मरा उत्थान और पतन मेरे ही हाथ है | हमें अपने ज्ञान की महिमा को स्वीकार कर इन जड़ पदार्थों की महिमा को छोड़ देना चाहिय | इसी का नाम है मृदुता या मार्दव – परिणाम | (126
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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