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________________ भामाशाह अश्वों को मेवाड़ की ओर मोड़ दीजिये। मैं अपनी समस्त पूर्वजोपार्जित सम्पत्ति मेवाड़-उद्धार के लिये आपके चरणों में अर्पित करता हूं। इसके अतिरिक्त सु-अवसर धन के सदुपयोग का और क्या हो सकता है ? अनुमानतः इस धनराशिसे २५ सहस्र सेनाका १२ वर्षका व्यय चल सकेगा। नाथ ! मेरी अन्तरात्मा बोलती है कि शीघ्र ही मेवाड़के दुर्गों पर यवन ध्वजों के स्थान पर केशरिया ध्वज फहरेंगे। प्रताप सिंह-( साश्चर्य सामन्तों को देखते हुये ) भामाशाह ! आपकी यह अनुपम उदारता मुझे चकित कर रही है। पर आपके पैतृक धन को अपने लिये स्वीकार करना न्याय संगत नहीं । भामाशाह-( आवेश पूर्ण स्वर में )महामना ! मेवाड़ के महाराणा के रूप में आप ही मेरी पूर्वजोपार्जित सम्पत्ति के यथार्थ स्वामी हैं। मैं एक साधारण रक्षक-सा अब तक रक्षा करता रहा हूं। अब आप उसे स्वीकार कर निश्चिन्त करें। प्रतापसिंह-( हर्ष पूर्वक ) मंत्रिवर ! आपकी पूर्वजोपार्जित सम्पत्ति पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। ___ भामाशाह-महाराणा ! यह आपके निःस्वार्थ हृदय की उदारता है । पर मेवाड़ मेरी जन्म-भूमि है, इसीकी धूलसे धूसरित हो मेरे शैशव ने अठखेलियां की है । इसीके सुर-नर-किन्नर-मोहक वातावरण में मेरे यौवन ने अपने रंगीन स्वप्न साकार किये हैं। इसीके जलवायु से सत्व ले यह वृद्ध शरीर आज भी अपना अस्तित्त्व रखने में समर्थ है । अतः इसके उद्धार के निमित्त त्रिभुवन की सम्पदा देकर भी उऋण नहीं हो सकता । कृपया मेवाड़-उद्धार के लिये मेरी यह लघुभेंट स्वीकार करने में अब कोई आपत्ति न करें। १३४
SR No.009392
Book TitleBhamashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherJain Pustak Bhavan
Publication Year1956
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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