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________________ भामाशाह मानसिंह का अपमान करना सुप्त सिंह के मुख में हस्त डालने के समान भयंकर है। __ प्रतापसिंह-वाह रे सिंह की खाल ओढ़ कर सिंह बनने वाले गर्दभ ! यदि तू मेरा अतिथि बन कर न आया होता, तो अभी तक मेरा खड्ग तेरा शीश उतार कर दोनों के विवाद का निर्णय कर चुका होता । पर यह नीति-विरुद्ध समझ तुझे निकल जाने का अवसर देता हूं। अम्बर कुल के कलङ्क ! यहां तेरा स्वागत न कर सका; अतः युद्धस्थली में आतिथ्य करने का आश्वासन देता हूं। ___मानसिंह-(क्रोध से ) अभिमानी प्रताप ! क्या तूणीर में वाण नहीं रह गये, जो वाग्वाणों से प्रहार करते हो ? कायरों के इस शस्त्र का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं । मैं स्वयं प्रतिशोध की भावना लेकर मेवाड़मेदिनी से बिदा लेता हूं। अब अतिथि के रूप में नहीं, तुम्हारे काल के ही रूप में आऊंगा और तुम्हारे शोणित को अपने वक्ष में मल अपनी जलन को शान्त करूंगा। ( गमनोद्यत ) ___ एक सैनिक-( आगे बढ़ कर ) जाओ! जाओ !! पर पूर्ण न होने वाली प्रतिज्ञा क्यों करते हो ? यदि मृत्यु-मोहिनी का वरण करने के लिये अधिक आतुरता है, तो रण-मण्डप में ही सज-धज कर आना और साथ ही अपने भगिनीपति अकबर को लेते आना। मानसिंह-( लौट कर ) उद्दण्ड प्रताप ! मैं अपने भोलेपन से तुम्हारे गृह आ गया हूं, इसी कारण इन साधारण सैनिकों से भी मेरा अपमान कराते हो ? करा लो, करा लो, जब तक मैं यहां हूं। पर स्मरण रहे, यह ऋण तुम्हें व्याज सहित चुकाना पड़ेगा। अतः संग्राम-यज्ञ
SR No.009392
Book TitleBhamashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherJain Pustak Bhavan
Publication Year1956
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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