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________________ [72] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन संव्यवहार प्रत्यक्ष - शंका - इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को आपने जो परोक्ष कहा है, वह आगमानुसार नहीं है, क्योंकि आगम में प्रत्यक्ष दो प्रकार का है - इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष। समाधान - आपका कहना सही है, लेकिन आगम में जो इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है वह मात्र व्यवहार प्रत्यक्ष की अपेक्षा से है, क्योंकि हेतु (लिंग) के बिना इन्द्रिय और मन के द्वारा वस्तु का जो साक्षात्कार रूप ज्ञान होता है, वह इन्द्रियादि की अपेक्षा से प्रत्यक्ष होने से, मात्र लोक व्यवहार की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है। लेकिन परमार्थ की अपेक्षा से परोक्ष है, क्योंकि अनुमान ज्ञान अर्थात हेतु (लिंग) से होने वाला लैंगिक ज्ञान एकान्त रूप से परोक्ष है। अत: बाह्य हेतु, इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना होने वाले अवधि आदि तीन ज्ञान एकान्त रूप से प्रत्यक्ष हैं और इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। इसी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षता को दृष्टि में रख कर आगम में भी इसे 'इन्द्रिय-प्रत्यक्ष' कहा गया है। शंका - नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में नो पद एकदेश का वाचक है और मन चूंकि इन्द्रिय-एकदेश है, इसलिए नो-इन्द्रिय का अर्थ मन है, अत: इस अपेक्षा से नोइन्द्रिय (मनोनिमित्तक) ज्ञान प्रत्यक्ष है तो उसे आपने किस अपेक्षा से परोक्ष कहा है। समाधान - भाष्यकार समाधान करते हुए कहते हैं कि - 1. ज्ञान के प्रसंग में नो शब्द सर्वनिषेध वाचक है न कि एकदेश वाचक अतः नोइन्द्रिय का अर्थ है सर्वथा प्रकार से इन्द्रिय का अभाव अर्थात् साक्षात् आत्मा से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान ही नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है। जिसके तीन भेद हैं - अवधिज्ञान, मन: पर्यवज्ञान और केवलज्ञान। 2. मनोनिमित्तक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना जाय तो सिद्धों के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव मानना पड़ेगा,जो कि उचित नहीं है, इस प्रकार के हेतुओं का उल्लेख मलधारी हेमचन्द्र ने अपनी टीका में किया है। जिसके निष्कर्ष रूप में ऐसा कह सकते हैं कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परनिमित्तक होने से परोक्ष है। वह ज्ञान मति व श्रुत में अन्तर्भूत होने से भी परमार्थतः परोक्ष होते हुए भी सांव्यवहारिक दृष्टि से वह प्रत्यक्ष है। स्वयं जिनभद्रगणि इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान भी अनुमान से भिन्न नहीं है। किन्तु इसमें धूम आदि अन्य लिंग या निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती, इसलिए इंद्रिय मनोज्ञान को उपचार से प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है। इस प्रकार जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र ने प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण करते हुए मति और श्रुतज्ञान को परोक्ष सिद्ध करते हुए अन्य दर्शनों की मान्यता का खण्डन किया है। ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद करने का कारण पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य का कथन है कि ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद करने का आशय उन-उन ज्ञानों की पराधीनता और स्वाधीनता बताना मात्र है, इसे स्वरूपकथन नहीं समझना चाहिए। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष के उक्त लक्षण करणानुयोग की विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से कहे गये हैं, लेकिन स्वरूप का कथन करने वाला जो द्रव्यानुयोग है, उसकी अपेक्षा से जिस ज्ञान में पदार्थ का साक्षात्कार होता है, वह प्रत्यक्ष और जिस ज्ञान में पदार्थ का साक्षात्कार नहीं होता है, वह परोक्ष ज्ञान है अर्थात् जहाँ पदार्थ दर्शन के सद्भाव में पदार्थ का ज्ञान होता है, पदार्थ का यह साक्षात्कार प्रत्यक्ष ज्ञान है। जहाँ पदार्थ दर्शन के बिना ही पदार्थ का ज्ञान होता है, पदार्थ का यह असाक्षात्कार परोक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के इन लक्षणों के अनुसार पदार्थ दर्शन के सद्भाव में होने के कारण अवग्रह, 74. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 93-95 और मलधारी की बृहद्वृत्ति का भावार्थ 75. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 471
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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