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________________ [60] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 4. ज्ञानोपयोग विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकार के पदार्थों के विषय में होता है जबकि दर्शनोपयोग केवल विद्यमान पदार्थों के विषय में ही होता है। 5. ज्ञानोपयोग में पदार्थ प्रतिभास रूप होता है जबकि दर्शनोपयोग में पदार्थ प्रतिबिम्ब रूप होता है। 6. जीव के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग सम्बन्धी आवरक कर्म भिन्न-भिन्न हैं, तथा इनके क्षय और क्षयोपशम से इनका पृथक-पृथक विकास होता है। 7. चक्षु आदि दर्शन दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं, जबकि श्रद्धान रूप दर्शन दर्शनमोहनीय से सम्बन्ध रखता है, इसलिए दोनों प्रकार के दर्शन अलग-अलग हैं। तथा ये दोनों ज्ञान से भिन्न हैं। क्योंकि श्रद्धानरूप दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग् ज्ञान की श्रेणी में आता है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं - जिसमें पांच ज्ञान रूप हैं. यथा - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान तथा तीन अज्ञान रूप हैं - मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान (अवधि अज्ञान)। इनका विस्तार से वर्णन प्रसंगानुसार किया जायेगा। 1. आभिनिबोधिक ज्ञान - पांच इन्द्रियाँ और मन की सहायता से योग्य स्थान में रहे हुए पदार्थ को जानने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है इसका दूसरा नाम मतिज्ञान है। 2. श्रुत ज्ञान - पांच इन्द्रियाँ और मन की सहायता से शब्द से सम्बन्धित अर्थ को जानने वाले ज्ञान को श्रुत ज्ञान कहते हैं। 3. अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी द्रव्य को मर्यादापूर्वक जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। 4 मनः पर्यवज्ञान - अढ़ाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मन द्वारा चिन्तित रूपी पदार्थों को जानने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान कहलाता है। 5. केवल ज्ञान - केवलज्ञानावरणीय कर्म के समस्त क्षय से उत्पन्न होने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान क्षायिक ज्ञान है। मिथ्यादृष्टि में मति, श्रुत और अवधि अज्ञान या विभंग ज्ञान होता है। दर्शनोपयोग के चार प्रकार होते हैं - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। जिनका अर्थ पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य के अनुसार इस प्रकार से है - चक्षुदर्शन - नेत्र इन्द्रिय द्वारा पदार्थ के नियत आकार का नियत आत्मप्रदेशों में पहुँच जाना चक्षुदर्शन है। अचक्षुदर्शन - नेत्र इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, नासिका और कर्ण इन चारों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय द्वारा अथवा मन द्वारा अपने-अपने अनुरूप पदार्थ के नियत आकारों का नियत आत्म-प्रदेशों में पहुँच जाना अचक्षुदर्शन है। अवधिदर्शन - इन्द्रिय अथवा मन की सहायता के बिना ही रूपवान् (पुद्गल) पदार्थ के आकार का नियत आत्मप्रदेशों में पहुँच जाना अवधिदर्शन है। केवलदर्शन - इन्द्रिय अथवा मन की सहायता के बिना ही विश्व के समस्त पदार्थों के आकारों का सर्व आत्मप्रदेशों में पहुँचना केवलदर्शन है। पांच ज्ञानों के नये नामों का उल्लेख डॉ. सागरमल जैन” ने किया है, यथा - 1. अनुभवात्मकज्ञान (मतिज्ञान), 2. बौद्धिक या विमर्शमूलक ज्ञान (श्रुतज्ञान), 3. अपरोक्ष ज्ञान या अन्तर्दृष्ट्यात्मकज्ञान 13. सरस्वती वरदपुत्र पं. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दग्रंथ, खंड 4, पृ. 54 14. तत्त्वार्थसूत्र 8.5, 6.11,14,15 15. तश्लोकवार्तिक 1.1.34 16. सरस्वती वरदपुत्र पं. बशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दग्रंथ, खंड 4, पृ. 15 17 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 217
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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