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________________ [28] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु ने दस नियुक्तियाँ लिखी हैं, जिनमें आवश्यक नियुक्ति प्रथम है। आवश्यक नियुक्ति पर जिनभद्रगणि, जिनदासगणि, हरिभद्र, कोट्याचार्य, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र, माणिक्यशेखर आदि आचार्यों ने विविध व्याख्याएं लिखी हैं। आवश्यक नियुक्ति में सर्वप्रथम मंगल के रूप में पांच ज्ञानों का वर्णन हुआ है। फिर सामायिक के प्रकारों का 26 द्वारों के माध्यम से विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रसंग पर 24 तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया है। सामायिक का विस्तार से वर्णन करने के पश्चात् आवश्यक के शेष चतुर्विंशतिस्तव आदि अध्ययनों का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है। आवश्यकनियुक्ति जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग होते हुए भी इसके कर्ता के सम्बन्ध में सभी विद्वान् एक मत नहीं हैं। कतिपय विद्वान् चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को आवश्यकनियुक्ति का कर्ता मानते हैं, तो कुछ विद्वान् नैमित्तिक भद्रबाहु को। सभी प्रमाणों की समीक्षा करने पर यह अधिक उचित प्रतीत होता है कि नियुक्ति की रचना चतुर्दशपूर्व भद्रबाहु से प्रारंभ हो गई थी और कालक्रम से उसमें प्रसंगानुसार गाथाएं जुडती गई और अन्त में नैमित्तिक भद्रबाहु ने परिष्कृत स्वरूप प्रदान किया है। (2) भाष्य - नियुक्तियों में मूल ग्रंथ में जो विषय वर्णित होता है, उसके अलावा अन्य विषय को नहीं समझाया जाता है, साथ ही वर्णित विषय गूढ और संक्षिप्त होता है। अतः नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिए पूर्वाचार्यों ने विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं लिखीं उन व्याख्याओं को भाष्य कहते हैं। भाष्यों का समय सामान्य तौर पर ईस्वी सन् की लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी माना जा सकता है। मुख्य रूप से जिनभद्रगणि और संघदासगणि भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं - 1. मूलभाष्य 2. भाष्य एवं 3. विशेषावश्यक भाष्य। प्रथम दो भाष्य तो बहुत संक्षिप्त हैं और उनकी अनेक गाथाओं का समावेश विशेषावश्यकभाष्य में कर लिया गया है। अतः विशेषावश्यकभाष्य तीनों भाष्यों का प्रतिनिधि है। विशेषावश्यकभाष्य आवश्यक सूत्र के छह अध्ययनों में से सामायिक नामक प्रथम अध्ययन पर रचित है। इस भाष्य में 3603 गाथाएं हैं। यह ग्रंथ शक संवत् 531 में लिखा गया है। आचार्य जिनभद्र कब हुए और किनके शिष्य थे, इस संबंध में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं अकोटा (अंकोट्टक) गांव में प्राप्त मूतियों पर जिनभद्रगणि का नामोल्लेख है। डॉ. उमाकांत प्रेमानन्द शाह ने कला तथा लिपि के आधार पर इन मूर्तियों को ई० सन 550 से 600 के मध्य की स्वीकार की है। इस आधार तथा अन्य प्रमाणों से जिनभद्रगणि का काल वि. सं. 545 से 650 तक माना जा सकता है। जिनभद्रगणि ने नौ ग्रंथों की रचना की है, यथा 1. विशेषावश्यकभाष्य, 2. विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, 3. बृहत् संग्रहणी, 4. बृहत् क्षेत्रसमास, 5. विशेषणवती, 6. जीतकल्प सूत्र, 7. जीतकल्पसूत्र भाष्य, 8. ध्यानशतक और 9. अनुयोगचूर्णि। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना ऐसी शैली में की है कि दर्शन के सामान्य तत्त्वों के विषय में ही तर्कवाद का अवलम्बन नहीं लिया गया, जैनदर्शन की प्रमाण एवं प्रमेय सम्बंधी छोटी-बड़ी महत्त्वशाली सभी बातों के सम्बन्ध में तर्कवाद का प्रयोग करके जिनभद्रगणि ने दार्शनिक जगत् में जैनदर्शन को एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप से ही नहीं, प्रत्युत सर्वतन्त्र समन्वय रूप में भी उपस्थापित किया है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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