SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [34] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 6. द्वारोपन्यास और भेद द्वार - सामायिक का लक्षण समभाव है। जिस प्रकार व्योम सब द्रव्यों का आधार है उसी प्रकार सामायिक सभी गुणों का आधार है। शेष अध्ययन एक तरह से सामायिक के ही भेद हैं। क्योंकि सामायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप तीन प्रकार की है और कोई गुण ऐसा नहीं है जो इन तीन प्रकारों से अधिक हो। सामायिक अनुयोग का उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय से कथन किया गया है। (गाथा 905 से 910 तक) 7. निरुक्त द्वार - उपक्रमण अर्थात् समीपीकरण (न्यासदेशानयन) उपक्रम है। निक्षेप का अर्थ है निश्चित क्षेप अर्थात् न्यास अथवा नियत व्यवस्थापन। अनुगम का अर्थ है सूत्रानुरूप गमन (व्याख्यान) अथवा अर्थानुरूप गमन। (गाथा 911 से 914 तक) 8. उपक्रम प्रयोजन - उपक्रम, निक्षेप, अनुगम तथा नय के क्रम को सिद्ध किया गया है तथा आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार नामक छह भेदों का विस्तृत वर्णन (गाथा 915 से 956 तक) 9. निक्षेप - निक्षेप के तीन भेद ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न तथा सूत्रालापकनिष्पन्न है। श्रुत के अंग, अध्ययन आदि सामान्य नाम ओघ, शुभ अध्यात्म का नाम अध्ययन है। 'करेमि भंते' आदि पदों का न्यास ही सूत्रालापकनिक्षेप है। इन तीनों का वर्णन किया गया है। (गाथा 957 से 970 तक) ___10. अनुगम - अनुगम के दो प्रकार हैं - निर्युक्त्यनुगम तथा सूत्रानुगम। इनके प्रभेदों का कथन किया गया है। (गाथा 971 से 1007 तक) 11. नय - किसी भी सूत्र की व्याख्या करते समय सब प्रकार के नयों की परिशुद्धि का विचार करते हुए निरवशेष अर्थ का प्रतिपादन किया जाता है। यही नय है। इस प्रकार चार प्रकार के अनुयोग का कथन पूर्ण हुआ है। (गाथा 1008 से 1011 तक) 12. उपोद्घात-विस्तार – मध्य मंगल - मंगलोपचार करके भाष्यकार कहते हैं कि मैं ग्रंथ का विस्तारपूर्वक उपोद्घात करूंगा। जिससे तिरा जाता है अथवा जो तिरा देता है अथवा जिसमें तिरा जाता है उसे तीर्थ कहते हैं। नाम आदि से वह चार प्रकार का होता है। नदी आदि द्रव्य तीर्थ है। जो श्रुतविहित संघ है वही भावतीर्थ है, उसमें रहने वाला साधु तारक है। ज्ञानादि त्रिक तरण है तथा भवसमुद्र तरणीय है। जो भावतीर्थ की स्थापना करते हैं अर्थात् उसे गुणरूप से प्रकाशित करते हैं उन्हें तीर्थकर हितार्थकर कहते हैं। तीर्थंकरों के पराक्रम, ज्ञान, गति आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर स्वामी व गणधरों को वंदन कर आवश्यक सूत्र की व्याख्या करते हुए सामायिक नामक प्रथम अध्ययन के विवेचन की प्रतिज्ञा कर नियुक्ति का अर्थ बताया गया है। (गाथा 1012 से 1125 तक) 13. ज्ञान-चारित्र - ज्ञान का सार चारित्र और चारित्र का प्रयोजन निर्वाण है। ज्ञान से वस्तु की यथार्थता-अयथार्थता का प्रकाशन होता है और इससे चारित्र की विशुद्धि होती है, अतः ज्ञान चारित्र विशुद्धि के प्रति प्रत्यक्ष कारण है। इस प्रकार ज्ञान और चारित्र दोनों मोक्ष के प्रति कारण हैं। (गाथा 1126 से 1182 तक) 14. सामायिक लाभ - सामायिक की प्राप्ति, ज्ञानावरण आदि आठों कर्म प्रकृत्तियों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति आदि का निरूपण इस प्रकरण में हुआ है। इसके बाद देशविरति, सर्वविरति, उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका वर्णन किया गया है। (गाथा 1186 से 1222 तक)
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy