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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय (31] टीकाओं में इन गाथाओं पर टीकाएं नहीं हैं और न उन टीका ग्रन्थों में ये गाथाएं ही हैं। अत: इन गाथाओं में जो समय निर्दिष्ट किया गया है, वह रचना का नहीं किन्तु प्रति के लेखन का है।103 दूसरी धारणा के अनुसार आचार्य जिनभद्रगणि वीर निर्वाण 1115 में युगप्रधान बने। इसका उल्लेख धर्मसागरीय पट्टावली में है। इस युगप्रधान काल को 60 या 65 वर्ष का गिनने से उनका स्वर्गवास विक्रम 705-710 में निश्चित होता है, किन्तु इसके साथ उक्त प्रति के उल्लेख का मेल नहीं बैठता, क्योंकि वह वि० 666 में लिखी गई थी। अतः इसका निर्माण उससे पहले ही पूर्ण हो चुका था। अन्तिम कृति होने के कारण उसके निर्माण और आचार्य की मृत्यु के समय 10 या 15 वर्ष से अधिक के अन्तर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि कल्पना करें कि, यह उल्लेख ग्रन्थ के निर्माण का सूचक है तो ऐसी दशा में इस ग्रन्थ की रचना के चालीस वर्ष बाद उनकी मृत्यु माननी पड़ेगी, किन्तु कोट्याचार्य का उल्लेख इसमें स्पष्ट रूप से बाधक है। अतः उपर्युक्त तथ्यों से जिनभद्र का स्वर्गवास अधिक से अधिक वि० सं. 650 में हुआ, यह मानना अधिक ठीक लगता है। जनश्रुति के अनुसार आचार्य जिनभद्र की आयु 104 वर्ष की थी। उसके अनुसार उनका समय वि. सं. 545 से 650 तक माना जा सकता है, जब तक इसके विरुद्ध प्रमाण न मिले, तब तक हम आचार्य जिनभद्र के इस समय को प्रामाणिक मान सकते हैं।104 मालवणिया जी का यह मत अधिक उचित प्रतीत होता है। आचार्य जिनभद्रगणि के ग्रंथ - जिनभद्रगणि ने नौ ग्रंथों की रचना की है, यथा 1. विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत पद्य), 2. विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति (संस्कृत गद्य), 3. बृहत् संग्रहणी (प्राकृत पद्य) 4. बृहत् क्षेत्रसमास (प्राकृत पद्य) 5. विशेषणवती (प्राकृत पद्य) 6. जीतकल्प सूत्र (प्राकृत पद्य) 7. जीतकल्पसूत्र भाष्य (प्राकृत पद्य) 8. ध्यानशतक और 9. अनुयोगचूर्णि (प्राकृत गद्य)।105 ध्यान शतक के कर्तृत्व के विषय में विद्वानों को अभी संशय है। विशेषावश्यकभाष्य का प्रतिपाद्य विषय । विशेषावश्यक भाष्य एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें जैन आगमों में प्रतिपादित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन किया गया है। इस भाष्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें जैन धर्म की मान्यताओं का वर्णन मात्र जैन दर्शन की दृष्टि से न करते हुए अन्य दर्शनों के साथ तुलना, खण्डन और समर्थन आदि करते हुए किया गया है। अत: दार्शनिक दृष्टि कोण से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनागमों का रहस्य जानने के लिए विशेषावश्यकभाष्य एक उपयोगी ग्रंथ है। इसमें अग्र लिखित विषयों का समावेश किया गया है - मंगल का स्वरूप, ज्ञानपंचक, निरुक्त, निक्षेप, अनुगम, नयवाद, सामायिक की प्राप्ति, सामायिक के बाधक कारण, चारित्र लाभ, प्रवचन, सूत्र अनुयोग का पृथक्करण, आचार नीति, कर्म सिद्धांत, स्याद्वाद, ग्रंथि भेद, देश विरति, सर्वविरति सामायिक आदि पांच चारित्र, शिष्य की योग्यता-अयोग्यता, गणधरवाद, निह्नव अधिकार, सामायिक के विविध द्वार, दिगम्बरवाद, नमस्कार सूत्र की उत्पत्ति, करेमि भंते आदि पदों की व्याख्या। विस्तार से विषय वस्तु इस प्रकार है - 1. सर्वप्रथम आचार्य ने प्रवचन को नमस्कार किया है। आवश्यकानुयोग का फल, योग, मंगल, समुदायार्थ, द्वारोपन्यास, तद्भेद, निरुक्त, क्रमप्रयोजन आदि दृष्टि से विचार किया गया है। (गाथा 1 से 2 तक) 104. गणधरवाद, प्रस्तावना पृ. 34 103. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 33 105. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. 225
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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