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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय [9] आचार्य जिनभद्र-कृत विशेषावश्यक भाष्य की प्रति शक संवत् 531 (सन् 609 ई.) में लिखी गई और वल्लभी के किसी जैन मंदिर को समर्पित की गई। इससे ज्ञात होता है कि वल्लभी नगरी से आचार्य जिनभद्र का कोई संबंध होना चाहिये। इससे हम अनुमान मात्र कर सकते हैं कि वल्लभी और उसके आसपास उनका विचरण हुआ होगा। डॉ. उमाकांत प्रेमानन्द शाह ने जैन सत्यप्रकाश के अंक 196 में अकोटा (अंकोट्टक) गांव में प्राप्त प्राचीन जैन मूर्ति में से दो मूर्तियों का परिचय देते हुए कहा है कि कला तथा लिपि के आधार पर ये मूर्तियाँ ई० सन् 550 से 600 के काल की होनी चाहिए। मूर्तियों पर जिन आचार्य जिनभद्र का नाम अंकित है, वे जिनभद्र विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ही हैं। उन मूर्तियों में से एक मूर्ति के पद्मासन के पृष्ठ भाग में 'ॐ देवधर्मोयं निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' और दूसरी मूर्ति के भा-मण्डल में 'ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्स' अंकित है। इसी बात का समर्थन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन लिपि विशारद प्रो० अवधकिशोर ने भी किया है, अत: इसमें शंका का अवकाश नहीं है। उपर्युक्त वर्णन से तीन निष्कर्ष निकलते हैं - 1. आचार्य जिनभद्र ने इन मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया होगा, 2. उनके कुल का नाम निवृत्ति कुल था और 3. वे वाचनाचार्य कहलाते थे। आचार्य निवृत्ति कुल के थे, ऐसा प्रमाण उपर्युक्त लेख के अलावा अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। भगवान् महावीर के 17 वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए थे। उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। उनके नाम थे - नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। भविष्य में इन चारों के नाम से भिन्न-भिन्न चार परम्पराएं चलीं और वे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुल के नाम से प्रसिद्ध हुई । उक्त मूर्ति-लेख के आधार पर यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र निवृत्ति कुल में हुए। 'चउप्पन-महापुरिस-चरियं' नामक प्राकृत-ग्रंथ के लेखक शीलाचार्य, 'उपमिति-भवप्रपंचकथा' के लेखक सिद्धर्षि, नवांगवृत्ति के संशोधक द्रोणाचार्य जैसे प्रसिद्ध आचार्य भी इस निवृत्ति कुल में हुए हैं, अतः इस बात में संदेह नहीं कि यह कुल विद्वानों की खान था।” इस बात को छोड़ कर उनके जीवन से संबंधित कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता, मात्र इनके गुणों का वर्णन प्राप्त होता है, इनके गुणों का व्यवस्थित वर्णन उनके द्वारा रचित जीतकल्प-सूत्र के टीकाकार ने किया। शंका - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण पूर्वधर नहीं थे तो इन्हें क्षमाश्रमण की उपाधि क्यों दी गई थी? समाधान - क्षमाश्रमण की उपाधि पूर्वधरों के ही लगती थी ऐसी बात नहीं है। पूर्वो के ज्ञान के बिना भी गुरुभगवन्तों के लिए 'क्षमाश्रमण' शब्द का प्रयोग होता है, जैसे आवश्यकसूत्र के पाठ 'इच्छामि खमासमणो' में गुरु भगवन्तों के लिए क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। अत: जिनभद्रगणि के लिए क्षमाश्रमण पद का उस समय की परम्परा के अनुरूप प्रयोग होना अनुचित नहीं है। इस सम्बन्ध में पं० दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि "प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्र विशारद के लिए प्रचलित था, परन्तु जब वाचकों में क्षमाश्रमणों की संख्या बढ़ती गई तब 'क्षमाश्रमण' शब्द भी वाचक के पर्याय के रूप में विश्रुत हो गया। अथवा 'क्षमाश्रमण' शब्द आवश्यक सूत्र में सामान्य गुरु के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है, अतः संभव है कि शिष्य विद्यागुरु को 'क्षमाश्रमण' के नाम से भी सम्बोधित करते रहे हों, अतः क्षमाश्रमण और वाचक ये पर्यायवाची बन 96. खरतर गच्छ की पट्टावली, देखें-जैन गुर्जर कविओं भाग 2, पृष्ठ 669 (उदधृत-गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 31) 97. गणधरवाद प्रस्तावना पृ. 31-32 98. जीतकल्प सूत्र की प्रस्तावना पृ. 7
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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