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________________ [506] 5. न्याय-वैशेषिक दार्शनिक एवं मीमांसक ज्ञान को अस्वसंवेदी मानते हैं, जबकि जैन दर्शन में ज्ञान को स्वसंवेदी माना गया है। 6. योगदर्शन में मान्य अतीत अनागत ज्ञान और जैनदर्शन में मान्य अवधिज्ञान आदि तीन ज्ञान भूत भविष्य की बात जानते हैं L 7. बौद्धदर्शन में भी ऐन्द्रियक और अतीन्द्रिय ज्ञान - दर्शन के लिए जैनदर्शन के समान 'जाणइ ' और 'पासइ' क्रिया का प्रयोग हुआ है। जैनागम में राजप्रश्नीय सूत्र, भगवती सूत्र, समवायांग सूत्र, नंदीसूत्र, स्थानांग सूत्र, षट्खण्डागम, कसायपाहुड एवं तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों में ज्ञान के पांच प्रकार निरूपित हैं 1. मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान) 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4 मनः पर्यवज्ञान, 5. केवलज्ञान । तीन अज्ञान हैं -1. मति अज्ञान, 2. श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान । दर्शन के चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन ये चार भेद होते हैं। इनमें मतिज्ञान जहाँ इन्द्रियज्ञान एवं मनोजन्य ज्ञान का द्योतक है, वहाँ श्रुतज्ञान आत्म-ज्ञान का सूचक है। यह ज्ञान प्रायः मतिपूर्वक होता है। इसे शब्द जन्य ज्ञान अथवा आगमज्ञान भी कहा गया है। इस प्रकार का विवेक ज्ञान जो आत्मा को हेय और उपादेय का बोध कराता है, वह श्रुतज्ञान है । अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते हैं, क्योंकि ये सीधे आत्मा से होते हैं। जैन दर्शन के प्राचीन ग्रंथों में सीधे आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा इन्द्रियादि की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष माना गया है । इस दृष्टि से मतिज्ञान तो परोक्ष है ही, श्रुतज्ञान भी मतिज्ञान पूर्वक होने के कारण परोक्ष है । मति - श्रुत ज्ञान से सब द्रव्यों को एवं उसकी सब पर्यायों को परोक्ष रूप से जाना जाता है, प्रत्यक्ष रूप से नहीं । अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान भी मर्यादित द्रव्यों की पर्याय को साक्षात् जानते हैं, सब द्रव्यों की सब पर्यायों को प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। प्रथम तीन ज्ञान ही मिथ्यादृष्टि के अज्ञान रूप में परिणत होते हैं। भारतीय परम्परा में ज्ञान का विवेचन न्याय, वैशेषिक, सांख्य योग मीमांसा वेदान्त, बौद्ध आदि सभी दर्शन करते हैं, किन्तु जितना व्यापक निरूपण जैन ग्रंथों में सम्प्रात होता है, वह अदभूत है। मति आदि पांच प्रकार के ज्ञान जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन में प्राप्त नहीं होते हैं। जिनभद्रगणि एवं उनका योगदान प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य आधार ग्रंथ आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सातवीं शती) की कृति विशेषावश्यकभाष्य है। विशेषावश्यकभाष्य एक भाष्यग्रन्थ है जो आवश्यकसूत्र पर लिखा गया है। जिनभद्रगणि ने आवश्यक सूत्र पर आचार्य भद्रबाहु रचित आवश्यक निर्युक्ति के विषय को आधार बनाते हुए तथा निर्युक्ति में जो विषय छूट गया उसको भी स्पष्ट करते हुए विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है। सभी प्रमाणों की समीक्षा करने पर जिनभद्रगणि का काल वि. सं. 545 से 650 तक सर्वमान्य है। जिनभद्रगणि के इस भाष्य में आवश्यक सूत्र के छह आवश्यकों में से मात्र प्रथम सामायिक आवश्यक की ही विवेचना 3603 प्राकृत गाथाओं में सम्पन्न हुई है । विशेषावश्यकभाष्य में जैन आगमों में प्रतिपादित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन किया गया है। विशेषावश्यकभाष्य पर जिनभद्रगणि ने वृत्ति लिखी है, जो स्वोपज्ञवृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है एवं इसमें विशेषावश्यकभाष्य का रहस्य भलीभांति स्पष्ट हुआ है। कोट्याचार्य ने इस पर विवरण की रचना की है, जो 13700 श्लोक परिमाण है । मलधारी हेमचन्द्र (वि. सं. 1140 - 1180) द्वारा विशेषावश्यकभाष्य पर लगभग
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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