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________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [493] है। 3. छद्मस्थ से अदत्तादान का सेवन भी हो सकता है। 4. छद्मस्थ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का रागपूर्वक सेवन कर सकता है। 5. छद्मस्थ अपनी पूजा सत्कार का अनुमोदन कर सकता है अर्थात् अपनी पूजा सत्कार होने पर वह प्रसन्न होता है। 6. छद्मस्थ आधाकर्म आदि को सावध जानते हुए और कहते हुए भी उनका सेवन कर सकता है। 7. साधारणतया छद्मस्थ जैसा कहता है वैसा करता नहीं है। इनके विपरीत सात बातों से केवलज्ञानी सर्वज्ञ पहिचाना जा सकता है यथा - केवली हिंसा आदि नहीं करते हैं यावत् जैसा कहते हैं वैसा ही करते हैं। ऊपर कहे हुए छमस्थ पहिचानने के बोलों से विपरीत सात बोलों से केवली पहिचाने जा सकते हैं। केवली के चारित्र मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है, इसलिए उनका संयम निरतिचार होता है। मूलगुण और उत्तरगुण सम्बन्धी दोषों का वे सेवन नहीं करते हैं। इसलिए वे उक्त सात बातों का सेवन नहीं करते हैं । 5. केवली के दस अनुत्तर स्थानांग सूत्र स्थान 5, उद्देशक 1 एवं स्थान 10 के अनुसार केवली भगवान् के दस बातें अनुत्तर होती है। अनुत्तर का अर्थ है - दूसरी कोई वस्तु जिससे बढ़ कर न हो अर्थात् जो सब से बढ़ कर हो। यथा - 1. अनुत्तर ज्ञान - ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। 2. केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं हैं। इसलिए केवली भगवान् का ज्ञान अनुत्तर कहलाता है। 3. अनुत्तर दर्शन - दर्शनावरणीय अथवा दर्शन मोहनीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से केवलदर्शन उत्पन्न होता है। 4. अनुत्तर चारित्र - चारित्र मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनुत्तर चारित्र उत्पन्न होता है। 5. अनुत्तर तप - केवली के शुक्ल ध्यानादि रूप अनुत्तर तप होता है। 6. अनुत्तर वीर्य - वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय से अनन्त वीर्य पैदा होता है। अनुत्तर क्षान्ति-क्षमा। 7. अनुत्तर मुक्ति - निर्लोभता। 8. अनुत्तर आर्जव - सरलता। 9. अनुत्तर मार्दव-मान का त्याग। 10. अनुत्तर लाघव - घाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उनके ऊपर संसार का बोझ नहीं रहता है। 6. सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता विश्व को निरन्तर जानते हुए और देखते हुए भी केवली के मन प्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता। 7. केवलज्ञानी पंचेन्द्रिय अथवा अनीन्द्रिय है केवलज्ञानी (13 वें-14 वें गुणस्थान वाले) को इन्द्रिय (भावेन्द्रिय) की अपेक्षा से अनीन्द्रिय और जाति (द्रव्येन्द्रिय) की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय माना है। भावेन्द्रियां मतिज्ञान के क्षयोपशम भाव में होती हैं। केवलियों के क्षयोपशम भाव नहीं होने से वे अनीन्द्रिय कहलाते हैं। सयोगी और अयोगी केवली को पंचेन्द्रिय कहने में द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियों की नहीं। यदि भावेन्द्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी 78 केवलियों के यद्यपि भावेन्द्रियाँ समूल नष्ट हो गयी हैं, और बाह्य इन्द्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है 79 2. जाति नाम कर्मोदय की अपेक्षा वे पंचेन्द्रिय हैं - पंचेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पंचेन्द्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है।280 277. नियमसार, ता. टीका, पृ. 172 278. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.30.9, पृ. 318 279. षट्खण्डागम, पु. 1,1.1.37 पृ. 263, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 701 की टीका 280. षट्ख ण्डागम, पु. 1,1.1.39 पृ. 264
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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