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________________ [24] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 4. आवश्यकसूत्र की टीकाएं मूल आगम, नियुक्ति एवं भाष्य, प्राकृत भाषा में लिखे गये और चूर्णिसाहित्य में भी प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् संस्कृतटीका का युग आया। जैन साहित्य में टीका का युग स्वर्णिम युग है। नियुक्ति में आगमों के शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या है। भाष्य साहित्य में विस्तार से आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है। चूर्णिसाहित्य में निगूढ़ भावों को लोक-कथाओं के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीकासाहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाएं आगम सिद्धांत को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। ये टीकाएं संस्कृत में हैं, यद्यपि कथासंबंधी अंश प्राकृत में भी उद्धत किया गया है। टीकाकारों ने प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य का तो अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है, साथ ही नये-नये हेतुओं द्वारा विषय को और अधिक पुष्ट बनाया है। टीकाओं के अध्ययन और परिशीलन से उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का भी सम्यक् परिज्ञान हो जाता है। आगमों की अंतिम वलभी वाचना से पूर्व ही आगमों पर टीकाएं लिखी जाने लगी थीं। विक्रम की तीसरी शताब्दी के आचार्य अगस्त्यसिंह ने अपनी दशवैकालिकचूर्णि में अनेक स्थानों पर इन प्राचीन टीकाओं का संकेत किया। इसी प्रकार हिमवंत थेरावली के अनुसार आर्य मधुमित्र के शिष्य तत्त्वार्थभाष्य पर बृहद्वृत्ति के लेखक आर्य गंधहस्ती ने आर्यस्कंदिल के आग्रह पर 12 अंगों पर विवरण लिखा था।86 आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम संस्कृत के टीकाकारों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम सर्वप्रथम आता है। जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति की रचना की। अन्य टीकाकारों में हरिभद्रसूरि (ईसवी सन् 700-770) का नाम आता है, जिन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार पर टीकाएं लिखीं। इसके बाद वादिवेताल शान्तिसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि (ईसवीं सन् 12 वीं शताब्दी), द्रोणाचार्य, मलधारी हेमचन्द्र, मलयगिरि आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। आवश्यक वृत्ति संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम गौरव के साथ लिया जा सकता है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने आवश्यकनियुक्ति पर भी वृत्ति लिखी। प्रस्तुत वृत्ति को देखकर सुज्ञों का यह अनुमान है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र पर दो वृत्तियाँ लिखी थीं। वर्तमान में जो टीका उपलब्ध नहीं है, वह टीका उपलब्ध टीका से बड़ी थी। क्योंकि आचार्य ने स्वयं लिखा है - 'व्यासार्थस्तु विशेषविवरणादवगन्तव्य इति।' अन्वेषण करने पर भी यह टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस टीका में कहीं-कहीं नियुक्ति के पाठान्तर भी दिये गए हैं। इसमें भी दृष्टान्तरूप एवं अन्य कथानक प्राकृत में ही हैं। नियुक्ति और चूर्णि में जिन विषयों का संक्षेप से संकेत किया गया है, उन्हीं का इसमें विस्तार किया गया है। इस वृत्ति का नाम शिष्यहिता है। इसका ग्रन्थमान 22000 श्लोकप्रमाण है। लेखक ने अन्त में संक्षेप में अपना परिचय भी दिया है। कोट्याचार्य ने आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अपूर्व स्वोपज्ञ भाष्य को पूर्ण किया और विशेषावश्यकभाष्य पर भी एक नवीन वृत्ति लिखी, लेकिन कोट्याचार्य ने उस वृत्ति में आचार्य हरिभद्र का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया, इससे यह ज्ञात होता है कि वे हरिभद्र के समकालीन या पूर्ववर्ती होंगे। हरिभद्र का काल सभी प्रमाणों के आधार पर ई० सन् 700 से 770 (वि. सं. 757 से 827) तक निश्चित किया गया है। प्रभावक चरित्र में वर्णित कथानक के अनुसार आपके दीक्षागुरु आचार्य 86. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 180 87. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भाग-3, पृ.331
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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