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________________ सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [463] आठ) सिद्ध हुए, वे 'अनेक सिद्ध' हैं अर्थात् जिस समय में एक साथ दो या दो से अधिक केवली सिद्ध होते हैं, उनको अनेक सिद्ध कहते हैं। जैसे ऋषभदेव आदि । इन पन्द्रह भेदों से सिद्ध जीवों का केवलज्ञान ही अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान है। उक्त पन्द्रह भेदों का समावेश सामान्य रूप से अधोलिखित तीर्थ आदि छह भेदों में भी किया जा सकता हैं। 1. तीर्थ - तीर्थ में दो भेदों का समावेश होता है - 1. तीर्थसिद्ध और 2. अतीर्थसिद्ध । जीव तीर्थ अथवा अतीर्थ में से एक में सिद्ध होता है। 2. तीर्थकर - तीर्थंकर में दो भेदों का समावेश होता है 1. तीर्थंकरसिद्ध और 2. अतीर्थंकरसिद्ध । जीव तीर्थंकर बनकर अथवा बिना तीर्थंकर बने सिद्ध होता है । 3. उपदेश - उपदेश में तीन भेदों का समावेश होता है - 1. स्वयंबुद्धसिद्ध 2. प्रत्येकबुद्धसिद्ध और 3. बुद्धबोधितसिद्ध। जीव इन तीनों में से किसी एक प्रकार से बोध प्राप्त करके सिद्ध होता है। 4. लिंग - लिंग में तीन भेदों का समावेश होता है - पुरुषलिंगसिद्ध, स्त्रीलिंगसिद्ध और नपुंसकलिंग। जीव इन तीनों में से एक प्रकार के द्रव्यलिंग से सिद्ध होता है। तीर्थंकर नपुसंक लिंग नहीं होता है और प्रत्येकबुद्ध हमेशा पुलिंग ही होते हैं 5. बाह्य चिह्न - बाह्य चिह्न की दृष्टि से तीन भेद हैं- स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध और गृहस्थलिंगसिद्ध। मुंहपत्ति रजोहरण आदि स्वलिंग हैं । परिव्राजक आदि वल्कल, काषाय वस्त्र, कमण्डलु आदि अन्यलिंग हैं और केश अलंकार आदि बाह्यलिंग हैं। उक्त तीनों भेद द्रव्यलिंग के हैं। 134 इन तीनों में से एक लिंग से जीव सिद्ध होता है । - 6. संख्या - संख्या की दृष्टि से सिद्धों के दो भेद हैं- एकसिद्ध और अनेकसिद्ध। एक समय में उत्कृष्ट 108 जीव सिद्ध हो सकते हैं। जीव अकेला अथवा दो आदि (अनेक) सिद्ध होते हैं। नंदीसूत्र के बाद वाले काल में कुछ आचार्य उपर्युक्त पन्द्रह भेदों का इन छह भेदों में समावेश करके छह भेद ही स्वीकार करते हैं। लेकिन चूर्णिकार जिनदासगणि के अनुसार तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह भेद स्वीकार करना उचित है। 35 हरिभद्र के काल में कुछेक आचार्य तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध इन दो भेदों में ही शेष तेरह भेदों का समावेश करके दो ही भेद स्वीकार करते हैं। लेकिन हरिभद्र के अनुसार इन दो भेदों से शेष तेरह भेदों का समावेश करने पर सामान्य बुद्धि वाले शिष्य स्पष्ट रूप से समझ नहीं सकते हैं। अतः इस उक्त पन्द्रह भेदों की विचारणा ही योग्य है। 136 २. परम्पर सिद्ध केवलज्ञान नंदीचूर्णि के अनुसार प्रथम समय में सिद्ध की अपेक्षा से दूसरे समय का सिद्ध पर है, तीसरे समय का जो सिद्ध है, वह भी पर है, इस प्रकार सिद्धों की परम्परा है, उन परम्परसिद्धों का केवलज्ञान परम्परसिद्ध केवलज्ञान है ।137 जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गया हो, उन्हें परम्पर सिद्ध कहते हैं। उनका ज्ञान परम्पर सिद्ध केवलज्ञान है। 138 133. नंदीचूर्णि, पृ. 45 134. तत्त्वार्थसूत्र 10.7 136. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 46, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 133 138. आत्मारामजी म., नंदीसूत्र, पृ. 128 135. नंदीचूर्णि, पृ. 45 137. नंदीचूर्णि पृ. 46
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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