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________________ षष्ठ अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में मनः पर्यवज्ञान मनः पर्यवज्ञान से जानने की प्रक्रिया अढ़ाई द्वीपवर्ती मनवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त किसी भी वस्तु का चिन्तन मन से करते हैं। चिन्तन के समय चिन्तनीय वस्तु के अनुसार मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता है, ये आकृतियाँ ही मन की पर्यायें हैं। इन मानसिक आकृतियों को मनः पर्यवज्ञानी साक्षात् जानता है और चिन्तनीय वस्तु को मन:पर्ययज्ञानी अनुमान से जानता है, जैसे कोई मानस शास्त्री किसी का चेहरा देखकर या प्रत्यक्ष चेष्टा देखकर उसके आधार से व्यक्ति के मनोगत भावों को अनुमान से जान लेता है, उसी प्रकार मन:पर्याय से मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद में अभ्यास वश ऐसा अनुमान कर लेता है कि इस व्यक्ति ने अमुक वस्तु का चिन्तन किया है। क्योंकि उसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अमुक प्रकार की परिणति आकृति से युक्त है, यदि ऐसा नहीं होता तो इस प्रकार की आकृति नहीं होती इस तरह चिन्तनीय वस्तु का अन्यथानुपपत्ति (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिमाण, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस प्रकार के अन्यथानुपपत्ति रूप अनुमान) द्वारा जानना ही अनुमान से जानना है । इस तरह यद्यपि मनः पर्यव ज्ञानी मूर्त द्रव्यों को ही जानता है, परंतु अनुमान द्वारा वह धर्मास्तिकायादि अमूर्त द्रव्यों को भी जानता है, इन अमूर्त द्रव्यों का उस मनः पर्यायज्ञानी द्वारा साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है। किसका मन मनः पर्यवज्ञान का विषय होता है ? [425] मनः पर्यवज्ञानी क्षेत्र मर्यादा में रहे सभी जीवों का चित्त मनः पर्यव का विषय नहीं होता है, परन्तु जो जीव संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त होते हैं, उन जीवों का चित्त ( मन ) ही विषय बनता है । 175 तो प्रश्न होता है कि मनः पर्यवज्ञान का विषय संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का मन ही क्यों होता है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि संज्ञी जीवों के अलावा अन्य जीवों में कुछ ग्रंथकारों ने संज्ञीश्रुत की तीन संज्ञाओं (दीर्घकालिकी, हेतुवादोपदेशिकी, दृष्टिवादोपदेशिका) की अपेक्षा भावमन स्वीकार किया है अर्थात् विशेषावश्यकभाष्य 76 के आधार से टीकाकार मलयगिरि ने एकेन्द्रिय जीवों को भावेन्द्रियों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय बताया अर्थात् भाष्यकार और टीकाकारों ने एकेन्द्रियों में एक द्रव्येन्द्रिय तथा पाँच भावेन्द्रियाँ मानी हैं, किन्तु प्रज्ञापना सूत्र 77 में एकेन्द्रिय में एक ही भावेन्द्रिय बताई है। मनः पर्यवज्ञान का विषय द्रव्य मन में चिंतित मनोवर्गणा के स्कंध हैं। द्रव्य-मन दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा से जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव है, उन्हीं के होता है। इसलिए मनः पर्यवज्ञान का विषय संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का चित्त (मन) ही होता है । कितने जीवों के मन को जानेगा एक मन:पर्यवज्ञानी अपने पूरे जीवन काल में संख्यात पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन को जान सकता है। वैसे तो अढाईद्वीप और समुद्रों में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव असंख्यात होते हैं, किन्तु मनः पर्यवज्ञानी अपने जीवन काल में संख्यात जीवों के मन को ही जान पाएगा, क्योंकि जघन्य उपयोग काल एक आवलिका का भी मानें तो संख्यातवर्ष की आयु में संख्यात संज्ञी पंचेन्द्रिय के मन की बात को ही जान सकेगा । यदि अढ़ाई द्वीप से बाहर के सोचे हुए मन के पुद्गल यदि अढाई द्वीप के अन्दर भी आ जायें तो शक्ति हीन होने से मनः पर्यवज्ञानी उन्हें नहीं जानता है । 175. सण्णिपंचेंद्रियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 82 176. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3001 177. प्रज्ञापना सूत्र, पद 15 उद्देशक 2
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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