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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [415] मनःपर्यव के दो ही भेद क्यों? जिस प्रकार अवधिज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता से अनेक भेद बताये हैं, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान भी रूपी पदार्थों को जानता है, यह भी क्षयोपशम से उत्पन्न होता है तो इसके दो ही भेदों का उल्लेख क्यों है? इसका समाधान यह हो सकता है कि अवधिज्ञान के जो विभिन्न भेद बताये हैं, वह क्षेत्र और काल की भिन्नता से ही उत्पन्न हुए हैं। अमुक जीव इतने काल में इतना क्षेत्र जानता है अथवा इतना क्षेत्र जानने वाला इतना काल जानता है, इस प्रकार की भिन्नता से अवधिज्ञान के अनेक प्रकार के भेद हो गये हैं। जबकि मन:पर्यवज्ञान में ऐसा नहीं है। मन:पर्यवज्ञानी क्षेत्र से जघन्य अढ़ाई द्वीप में ढाई अंगुल कम क्षेत्र जानता देखता है और उत्कृष्ट पूरा अढाईद्वीप जानता देखता है। काल से भी जघन्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग जानता देखता है और उत्कृष्ट भी इतने काल को ही जानता है, लेकिन उसको अधिक स्पष्टता से जानता है। इसलिए क्षेत्र और काल की अपेक्षा से दो ही भेद प्राप्त होते हैं। इसलिए मनःपर्यवज्ञान के दो ही भेद होते हैं। ऋजुमति-विपुलमति ज्ञान के प्रभेद ऋजुमति-विपुलमति के प्रभेदों का पुष्पदंत, भूतबलि, पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेनाचार्य और विद्यानंद आदि दिगम्बर आचार्यों ने उल्लेख किया है जबकि भद्रबाहु, देववाचक, उमास्वाति, जिनभद्र, जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि, उपाध्याय यशोविजय आदि श्वेताम्बर आचार्यों ने ऋजुमतिविपुलमति के प्रभेदों का उल्लेख नहीं किया है। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के प्रभेद षखण्डागम एवं कसायपाहुड में ऋजुमति मन:पर्याय के तीन भेद तथा विपुलमति मन:पर्याय के छह भेद प्रतिपादित हैं।18 यहाँ ऋजु और विपुल शब्द की स्पष्टता का वर्णन किया है। ऋजुमति के विषय की अपेक्षा से तीन भेद होते हैं - 1. ऋजुमनोगत, 2. ऋजुवचनगत और 3. ऋजुकायगत। 1. ऋजुमनोगत - जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसका उसी प्रकार चिन्तन करने वाले मन को ऋजुमन कहते हैं। ऋजु अर्थात् प्रगुण (निर्वर्तित) होकर मनोगत अर्थ को जानता है, वह ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान है। वह अचिन्तित, अर्ध चिन्तित एवं विपरीत रूप से चिन्तित अर्थ को नहीं जानता है। 2. ऋजुवचनगत - जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसका उसी प्रकार कथन करने वाले वचन को ऋजु वचन कहते हैं। मन में चिन्तित अर्थ ही जब वचन द्वारा अभिव्यक्त होता है तो उसका ज्ञान भी मन:पर्यवज्ञान के अन्तर्गत आता है। ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान से नहीं बोले गये, आधे बोले गये, अस्पष्ट बोले गये अर्थ का बोध नहीं होता है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि ऋजु वचनगत ज्ञान को मन:पर्यव ज्ञान कैसे कह सकते हैं? क्योंकि यहाँ चिन्तित अर्थ को कहने पर यदि जानता है तो इससे श्रुत ज्ञान का प्रसंग प्राप्त होता है? लेकिन ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि किसी पदार्थ का चिन्तन करने के पश्चात् जब कथन किया जाता है तभी वह मन:पर्यवज्ञान का विषय बनता है। उदाहरण के लिए यह राज्य या राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा ऐसा चिन्तन करने के बाद जो कथन किया जाता है, तो यह श्रुतज्ञान का विषय नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से राज्य और राजा की हानि-वृद्धि को जान कर ही उसका कथन करता है, इसलिए उसका ज्ञान परोक्ष की श्रेणी में नहीं आता है।19 118. जं तं उज्जुमदिमणपज्जवयणाणावरणीय णाण कम्मं तं तिविहं उजुमं मणोगदं जाणादि, उजुगं वचिगदं जाणादि, उजुगं कायगयं जाणादि। - षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.62, पृ. 329 119. षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.62, पृ. 330-331
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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