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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [413] मनःपर्यायज्ञान के भेद मन:पर्यायज्ञान दो प्रकार का होता है, यथा - ऋजुमति और विपुलमति।01 द्रव्य मन के जितने स्कन्ध, उसकी जितनी पर्यायें विपुलमति जानता है, उनकी अपेक्षा जो द्रव्य मन के स्कन्ध और उसकी पर्यायें अल्प जाने, उसे 'ऋजुमति' मन:पर्यायज्ञान कहते हैं दूसरे शब्दों में द्रव्य-मन के जितने स्कन्ध और उसकी जितनी पर्यायें ऋजुमति जानता है, उनकी अपेक्षा जो द्रव्यमन की विपुल स्कन्ध और पर्यायें जानता है, उसे 'विपुलमति' मन:पर्यायज्ञान कहते हैं। श्वेताम्बर मान्यता में ऋजुमति-विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का स्वरूप ऋजु का अर्थ सामान्य ग्रहण और विपुल का अर्थ विशेष ग्रहण है। ऋजुमति - जो सामान्य रूप से मनोद्रव्य को जानता है, वह ऋजुमति मनोज्ञान है। यह प्रायः विशेष पर्याय को नहीं जानता। ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी इतना ही जानता है कि अमुक व्यक्ति ने घट का चिन्तन किया है, देश, काल आदि से सम्बद्ध घट के अन्य अनेक पर्यायों को वह नहीं जानता।02 विपुलमति - विशेषग्राहिणी मति विपुलमति है। अमुक व्यक्ति ने घड़े का चिन्तन किया है। वह घड़ा सोने का बना हुआ है, पाटलिपुत्र में निर्मित है, आज ही बना है, आकार में बड़ा है, कक्ष में रखा हुआ है, फलक से ढका हुआ है - इस प्रकार के अध्यवसायों के हेतुभूत अनेक विशिष्ट मानसिक पर्यायों का ज्ञान विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है।103 ऐसा ही वर्णन नंदीचूर्णिी04 में भी प्राप्त होता है। चूर्णि के अनुसार ऋजुमति मन की पर्यायों को जानता है, लेकिन अत्यधिक विशिष्ट पर्यायों को नहीं जानता है। जैसे किसी संज्ञी जीव ने किसी घट के विषय में विपुल चिन्तन किया। उस चिन्तन के अनुरूप उसके द्रव्य मन की अनेक पर्यायें बनी। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी 'इसने घट का चिन्तन किया' - मात्र इतना जानने में जो सहायभूत अल्प पर्यायें हैं, उन्हें ही जानेगा और उन पर्यायों को साक्षात् देखकर फिर अनुमान से यह जानेगा कि - 'इस प्राणी ने घट का चिन्तन किया।' परन्तु विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी उन पर्यायों में-'इसने जिस घट का चिंतन किया वह घट द्रव्य से सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से पाटलिपुत्र नामक नगर में बना हुआ है, काल से बसन्त ऋतु में बना है, भाव से सिंहनी के दूध से युक्त है और फल से ढका हुआ है, गुण से राजपुत्र को समर्पित करने योग्य है और नाम से राजघट है इत्यादि बातें जानने में सहायभूत जितनी विपुल पर्यायें हैं, उन सबको जानेगा और अनुमान से यह जानेगा कि 'उसने घट का चिंतन किया, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, गुण और नाम से या वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, संस्थान आदि से इस प्रकार का है।' यही मत सिद्धसेनगणि का भी है कि ऋजुमति सामान्य को ग्रहण करता है और विपुलमति विशेष को ग्रहण करता है।105 101. तं च दुविहं उपज्जइ तंजहा - १. उज्जुमई य २. विउलमई य। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 80 102. रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमई मणोणाणं। पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चितियं मुणइ। -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 784 103. विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मई विउला चिंतियमणुसरइ घडं पगसओ पज्जवसएहिं ।-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 785 104. ओसण्णं विसेसविमुहं उवलभति णातीव बहुविसेसविसिट्ठे अत्थ उवलभइ त्ति, भणितं होति, घडोऽणेण चिंतिओ त्ति जाणति। विपुला मति विपुलमति, बहुविसेसग्गाहिणी त्ति भणित्तं भवति। मणोपज्जायविसेसे जाणति दिèतो, जहा - अणेण घडो चिंतितो, तं च देस कालादि अणेगपज्जायविसेसविसिटे जाणति। - नंदीचूर्णि, पृ. 39 105. या मति सामान्यं गृह्णाति सा ऋज्वी व्युपदिश्यते, या पुनर्विशेषग्राहिणी सा विपुलेत्युपदिश्यते। तत्त्वार्थभाष्यानुसारणी, पृ. 101
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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