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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मन:पर्यवज्ञान [405] तक संसार में रह सकता है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान के विषय में भी समझ लेना चाहिए। ऐसी कुछ समानता मलयगिरि कृत नंदी की टीका में भी उल्लिखित है। ऐसा ही वर्णन विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 87 में भी मिलता है ".....छउमत्थ-विसयभावादिसामण्णा।" इस प्रकार सिद्धसेन दिवाकर आदि आचार्यों ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में अभिन्नता को सिद्ध किया है। अर्वाचीन विद्वानों में डॉ. मोहनलाल मेहता का भी यही मत है। उनके अनुसार अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में कोई अन्तर नहीं, जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतंत्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं हैं। एक ज्ञान कम विशुद्ध है, दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध है। दोनों के विषयों में भी समानता ही है। क्षेत्र और स्वामी की दृष्टि से भी सीमा की न्यूनाधिकता है। कोई ऐसा मौलिक अन्तर नहीं दिखता, जिसके कारण दोनों को स्वतंत्र ज्ञान कहा जा सके। दोनों ज्ञान आंशिक आत्म प्रत्यक्ष की कोटि में हैं। मति और श्रुतज्ञान के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। लेकिन यह मत आगम के अनुकूल नहीं है। आगम वादी आचार्यों ने अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान को भिन्न ही स्वीकार किया है और इसके लिए अनेक हेतु दिये हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में भिन्नता की सिद्धि इस पक्ष के उमास्वाति आदि आचार्यों ने स्वामी, विशुद्धि, विषय, द्रव्य, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा से अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान दोनों में भिन्नता सिद्ध की है, जैसेकि - ___1. स्वामी - दोनों के स्वामी छद्मस्थ हैं। अवधिज्ञान के स्वामी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों के जीव होते हैं। अवधिज्ञान अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक और सर्वविरत साधु को हो सकता है। यदि अज्ञान-विभंग ज्ञान की अपेक्षा लें, तो प्रथम गुणस्थान वाले को भी उत्पन्न हो सकता है, परन्तु मन:पर्यायज्ञान तो नियम से मनुष्यगति में ही होता है तथा मनुष्य गति में भी संयत और उत्कृष्ट चारित्रवाले साधु को ही होता है। मन:पर्यवज्ञान प्रमत्त संयत से क्षीणकषायपर्यन्त (6 से 12) गुणस्थानों में ही पाया जाता है। इसमें भी वर्धमान परिणामवाले को ही होता है, अन्य को नहीं। वर्धमान परिणामवालों में भी ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत को ही होता है, अन्य को नहीं। ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत में भी किसी-किसी को ही होता है, सब को नहीं अर्थात् अवधिज्ञान के स्वामी संयत और असंयत दोनों हो सकते हैं, जबकि मन:पर्याय के स्वामी संयत ही होते हैं।63 2. विशुद्धि - अवधि की अपेक्षा मन:पर्याय विशुद्धतर है। अवधि के विषय का अनंतवां भाग मन:पर्याय का विषय है, इसी प्रकार मन:पर्यव का विषय छोटा होते हुए भी जिस प्रकार अनेक 60. अवधिज्ञानानन्तरं च छद्मस्थविषयभावप्रत्यक्षसाधात् मनःपर्यायज्ञानमुक्तं, तथाहि - यथाऽवधिज्ञानं छद्ममस्थ भवति तथा मन:पर्यवज्ञानमपीति छद्मस्थसाधर्म्य, तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयं तथा मन:पर्यायज्ञानमपि, तस्य मन:पुद्गलालम्बनत्वादिति विषयसाधर्म्य, तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्त्तते तथा मन:पर्यायज्ञानमपीति भावसाधर्म्य, तथा चावधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति प्रत्यक्षत्वसाधर्म्यम्। - नंदीवृत्ति - मलयगिरि पृ. 71 61. डॉ. मोहनलाल मेहता. जैन धर्म दर्शन एक समीक्षात्मक विवेचन, पृ. 283-284 62. प्रमाणमीमांसा हिन्दी अनुवाद (पं. शोभाचन्द भारिल्ल) पृ. 36, सवार्थसिद्धि 1.25, पृ. 94, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.25.2 63. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.25.2, पृ. 59, धवलाटीका, पु. 13, सू. 5.5.68, पृ. 339, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 105 64. तत्त्वार्थ सूत्र 1.26, सर्वार्थसिद्धि 1.25, पृ. 94, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.25.1, पृ. 59
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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