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________________ [380] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 6. ऋजुमति - यह मन:पर्यवज्ञान का भेद है। मन:पर्यवज्ञान के दो भेद हैं - 1. ऋजुमति 2. विपुलमति। मनोगत भाव को सामान्य रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि ऋजुमति है अर्थात् घट-पटादि के विचार को सामान्य मात्र ग्रहण करने वाली मति ऋजुमति लब्धि है। जैसे किसी व्यक्ति ने घड़े का विचार किया है। तो ऋजुमति मन:पर्यवी इतना जान सकता है कि अमुक व्यक्ति घडे का विचार कर रहा है। विशेष कुछ भी नहीं जान सकता अर्थात् वह घड़ा कहाँ का है? कौनसे द्रव्य का है? कौनसे रंग का है? इस ज्ञान की विषय सीमा ढ़ाई अंगुल न्यून ढ़ाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोभाव है। विपुलमति वस्तुगत विशेष धर्मों को जानता है अर्थात् घड़े को जानने के साथ-साथ उसकी पर्यायों को भी जानता है कि यह घडा रजत का बना हुआ है, इसका रंग श्वेत है, इत्यादि। ऋजुमति लब्धि विपुलमति की अपेक्षा से कुछ न्यून विशुद्धतावाली है। यह दोनों मनःपर्यवज्ञान के ही भेद हैं। 7. सर्व औषधि - जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक, कान, बाल, नख आदि सभी अवयव सुवासित और रोग दूर करने में समर्थ होते हैं वह सर्व औषधि लब्धि है। अथवा एक ही साधु के आमर्ष औषधि आदि सभी लब्धियाँ होती हैं तो वह सर्व औषधिलब्धि वाला कहलाता है। 8. चारणविद्या - अतिशय सहित गमनागमनरूप लब्धि युक्त जो होता है वह चारण लब्धिमान् कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है - 1. विद्याचारण और 2. जंघाचारण। जंघाचारण लब्धि विशिष्ट चारित्र और तप के प्रभाव से प्राप्त होती है और विद्याचारण लब्धि विद्या के वश से होती है। जंघाचारण लब्धि सम्पन्न मुनिवरों को विशेष जिज्ञासा से जब कहीं यथाशीघ्र जाना होता है तब उस लब्धि का उपयोग करते हैं। वे अपनी लब्धि से रुचकवर द्वीप तक ही जा सकते हैं और विद्याचारण लब्धिवाले मुनि अधिक से अधिक नंदीश्वर द्वीप पर्यन्त ही जा सकते हैं। (अ) विद्याचारण - जो मुनि किसी विवक्षित आगम रूप विद्या की मुख्यता से गमनागमन करता है, वह विद्याचारण कहलाता है। यह लब्धि जिसने पूर्वो का विधिवत् अध्ययन किया हो तथा यथाविधि अतिशय पूर्वक निरन्तर बेले (छट्ठ) का तप किया हो उसको उत्पन्न होती है। __विद्याचारणमुनि की गति को उदाहरण से समझाया है कि जैसे कोई महाऋद्धि वाला देव तीन चुटकी बजाए इतने समय में इस जम्बूद्वीप के तीन बार चक्कर लगा कर आ जाए, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण मुनि की होती है। इस लब्धि से लब्धिमान् हुआ मुनि एक कदम में मानुषोत्तर पर्वत पर जाकर वहाँ के चैत्यों (ज्ञानियों) को वंदना करता है। वहां से दूसरे कदम में नंदीश्वर नामक आठवें द्वीप पर जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदना करता है। फिर वहाँ से तीसरे कदम में जहाँ से गया था वहाँ आकर यहाँ रहे हुए चैत्यों को वंदना करता है। इस प्रकार यह तिर्यक् दिशा में गमनागमन होता है। इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा में वह गमन करे तो यहाँ से एक कदम में नन्दनवन में जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदना करता है, वहाँ से दूसरे कदम में मेरुपर्वत के ऊपर जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदना करता है, फिर तीसरे कदम में जहाँ से गया उस स्थान पर पुनः आकर वहां के चैत्यों को वंदना करता है। (ब) जंघाचारण - मकड़ी के जाल अथवा सूर्य की किरणों की मदद से दोनों जंघाओं से आकाश मार्ग में चलता है, उसे जंघाचारण कहते हैं। यह लब्धि यथाविधि निरन्तर तेले (अठम) की तपस्या करने पर उत्पन्न होती है। जंघाचारणमुनि की गति को उदाहरण से समझाया है जैसे कि कोई महाऋद्धि वाला देव तीन चुटकी बजाए इतने समय में इस जम्बूद्वीप के इक्कीस बार चक्कर लगा कर आ जाए, ऐसी शीघ्र गति जंघाचारण मुनि की होती है। अर्थात् विद्याचारण की अपेक्षा से जंघाचारण की गति सात गुणा अधिक होती है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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