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________________ [372] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन विशेषावश्यकभाष्य ‘संखेज्ज मणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोधब्बो' (गाथा 669) में द्रव्य, क्षेत्र और काल का परस्पर संबंध बताया था। उसी प्रकार यहाँ उत्पाद-प्रतिपात द्वार में द्रव्य का गुण के साथ संबंध बताया है, क्षेत्र और काल के साथ नही, क्योंकि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं क्षेत्र और काल के नहीं 19 अवधिज्ञानी एक स्कंध अथवा परमाणु आदि द्रव्य की उत्कृष्ट से असंख्यात, मध्यम से संख्यात और जघन्य से द्विगुणित पर्याय अर्थात् वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप चार पर्याय अवश्य देखता है, लेकिन एक द्रव्य की अनंत पर्याय नहीं देखता। क्योंकि अनंतद्रव्य समूह की जितनी अनंत पर्याय होती हैं, उनको देखता है। 20 नारक और देव, तो भव-स्वभाव से ही अवधि के मध्यवर्ती (आभ्यन्तर अवधिवाले) होते हैं बाह्य नहीं अर्थात् सभी ओर प्रकाशक और संबंधित अवधिवाले होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय भव के स्वभाव से ही अवधि के बाह्य होते हैं, किन्तु अन्तर्गत नहीं होते। मनुष्य में अवधि दोनों प्रकार का होता है। देवता और नारकी के आभ्यन्तर अवधिज्ञान होने के तीन कारण हो सकते हैं - 1. नैरयिक और देव में अवधिज्ञान नियमतः होता है। 2. उनका अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक होता है। 3. उनका अवधिज्ञान मध्यगत होता है। मध्यगत अवधिज्ञान में ही सर्वतः देखने की शक्ति होती है।27 9-10-11. ज्ञान-दर्शन तथा विभंग द्वार जिनभद्रगणि ने इसका उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य गाथा 763-765 तक किया है। इस द्वार में आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य के आधार से अवधि ज्ञान रूप है, दर्शन रूप है अथवा विभंग रूप है एवं ये परस्पर तुल्य है या अधिक है, इसका विचार किया जाएगा। यह वर्णन मात्र नियुक्ति और भाष्य में ही प्राप्त होता है। 22 ज्ञान का स्वरूप मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार 'तत्र यो वस्तुनो विशेषरूपग्राहकः स साकारः, स च ज्ञानमिष्टं सम्यग्दृष्टेः, मिथ्यादृष्टस्तु स एव विभंगज्ञानम्'423 अर्थात् जो वस्तु के विशेष रूप को ग्रहण करे वह साकार कहलाता है। साकार बोध ज्ञान रूप होता है। साकार बोध सम्यग्दृष्टि में अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टि में विभंगज्ञान के रूप में होता है। दर्शन का स्वरूप मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार 'यस्तु सामान्यरूपग्राहकः, अयमनाकारः, विशिष्टकाराग्रहणात् स च दर्शनम्'424 अर्थात् जो वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है, वह अनाकार बोध दर्शन कहलाता है। अवधि का अनाकार बोध अवधिदर्शन कहलाता है। ज्ञान और दर्शन का भेद क्यों? ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति में ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम की समानता रहती है, सामान्यतः क्षयोपशम एक ही प्रकार का है। किन्तु द्रव्य में सामान्य और विशेष - दोनों धर्म होते हैं, इस दृष्टि से क्षयोपशम के दो रूप बनते हैं - ज्ञान (साकार उपयोग) और दर्शन (अनाकार उपयोग) 125 419. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 759 420. आवश्यकनियुक्ति गाथा 64, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 760-762 421. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ. 35, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 99 422. आवश्यकनियुक्ति गाथा 65 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 763-765423. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 763 की बृहद्वृत्ति 424. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 763 की बृहद्वृत्ति 425. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 109
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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