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________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जिनभद्रगणि का अभिमत है कि 'इयरो य नाणुगच्छइ ठियपईवो व्व गच्छंतं' अर्थात् अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मप्रदेशों की विशुद्धि हो जाने पर जो ज्ञान एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हुए अपने स्वामी का स्थित दीपक की तरह अनुगमन नहीं करे, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है 329 [356] जिनदासगणि के अनुसार एक स्थान पर स्थित अथवा सांकल से प्रतिबद्ध दीपक की भांति जो ज्ञान गमनप्रवृत्त अवधिज्ञानी का अनुगमन नहीं करता, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है अर्थात् सांकल से बंधा हुआ दीपक अपने चारों ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता अन्य क्षेत्र को नहीं । वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान क्षेत्र प्रतिबद्ध होता है। जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसी क्षेत्र में उसका उपयोग लगता है अन्य क्षेत्र में नहीं । 30 इसी का अनुसरण हरिभद्र ने भी किया है। नंदीचूर्णिकार ने कहा है कि अनानुगामिक अवधिज्ञान का क्षयोपशम क्षेत्रसापेक्ष होता है। 332 मलधारी हेमचन्द्र की बृहद्वृत्ति में उल्लेख है कि जो अवधिज्ञान स्थित दीपक के समान पुरुष के साथ नहीं रहता है वह अनानुगामिक अवधिज्ञान कहलाता है | 333 नंदीसूत्र में अनानुगामिक अवधिज्ञान के वर्णन में चार शब्द आए हैं। (नंदीसूत्र, पृ. 34 ) 1. परिपेरंतेहिं (परिपेरंत) चारों ओर अग्नि स्थान के पास घूमता हुआ । 2. परिघोलेमाणे (परिघोलेमाण) - बार-बार अग्नि स्थान के आस-पास घूमता हुआ । 3. संबद्धाणि (संबद्ध) - अपने उत्पत्ति क्षेत्र से लेकर अंतराल किए बिना पूर्ण संबद्ध क्षेत्र जानने वाला अर्थात् स्वावगाढ़ क्षेत्र से निरन्तर जितने पदार्थों को जानता है, वे सम्बद्ध हैं। 4. असंबद्धाणि (असंबद्ध) - अपने उत्पत्ति क्षेत्र को तथा अंतराल सहित विभिन्न क्षेत्रों को जानने वाला अर्थात् बीच में अन्तर रख कर आगे रहे हुए जितने पदार्थ को जानता है वे असम्बद्ध हैं। सम्बद्ध - असम्बद्ध अवधिज्ञान अनानुगामिक अवधिज्ञान नंदीसूत्र के अनुसार संबद्ध और असंबद्ध हो सकता है 334 उसका क्षेत्र संख्यात और असंख्यात योजन का होता है । जब स्वावगाढ़ क्षेत्र से निरंतर जितने पदार्थों को वह जानता है वह संबद्ध है। जैसे दीपक की प्रभा व्यवधान बिना संबद्ध होती है, वैसे ही अवधिज्ञान जीव के साथ संबद्ध होता है। अवधि क्षेत्र के सारे क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उसको संबंद्ध अवधिज्ञान कहते हैं और बीच में अंतर रख कर आगे रहे हुए पदार्थ को जानता है उसे असंबद्ध अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे कमरे आदि में जलती हुई लाइट आदि का प्रकाश कमरे के बाहर अंधकार को भेद कर सामने की दीवार आदि को प्रकाशित करता है। इसका क्रम इस प्रकार होगा कि प्रकाशअंधकार-प्रकाश, इस परिस्थिति में लाइट का प्रकाश लाइट के साथ संबद्ध नहीं होता है वैसे ही अवधिज्ञान जीव के साथ संबद्ध नहीं होता है अर्थात् जो समग्र अवधि के क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करके, बीच बीच के क्षेत्र प्रकाशित करे उसको असंबद्ध अवधि कहते हैं। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार जो अवधि लोक प्रमाण होता है, वह संबद्ध और असंबद्ध दोनों प्रकार का होता है परंतु जो अवधि अलोक को स्पर्श करता है, वह नियम से संबद्ध होता है। 335 329. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 715 330. णो गच्छति त्ति अणाणुगामिकं संकलापडिबद्धठितपदीवो व्व । नंदीचूर्णि पृ. 29 332. तस्य य खेतावेक्खखयोवसमलाभत्तणतो अणाणुगामितं । नंदीचूर्णि पृ. 29 333. अनानुगामुकस्त्ववस्थित श्रृंखलादिनियन्त्रितप्रदीपवत् विपरीतः । विशेषावश्यकभाष्य 334. इसका विस्तार से वर्णन देश द्वार में किया है, पृ. 374-376 331. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 28 बृहद्वृत्ति, गाथा 714, पृ. 302 335. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 67
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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