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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय [3] पांच ज्ञानों के वर्णन के पश्चात् षडावश्यकों का निरूपण है। उसमें प्रथम आवश्यक सामायिक का विस्तार से वर्णन किया गया है। चारित्र का प्रारंभ सामायिक से ही होता है। ज्ञान और चारित्र का पारस्परिक संबंध बताते हुए आचार्य ने यह निर्देश दिया है कि मुक्ति के लिए ज्ञान और चारित्र दोनों की ही आवश्यकता होती है। इसके लिए अंधे और लूले का उदाहरण दिया गया है। सामायिक का अधिकारी श्रुतज्ञानी होता है। इसी प्रसंग पर उपशम और क्षपकश्रेणी का विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है। सामायिक श्रुत का अधिकारी ही तीर्थंकर होता है, क्योंकि जो सामायिक श्रुत का अधिकारी है वही क्रमशः विकास करता हुआ किसी समय तीर्थंकर रूप में उत्पन्न होता है और तीर्थंकर केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद ही श्रुत का उपदेश देते हैं, यही जिनप्रवचन है। व्याख्याननिधि का निरूपण करते हुए आचार्य और शिष्य की योग्यता का मापदण्ड बताया गया है। इन बिन्दुओं का विस्तार से वर्णन करने के बाद सामायिक का उद्देश्य, निर्देश, निर्गम, उद्भव आदि 26 द्वारों के माध्यम विवेचन किया गया है। उद्देश्य और निर्देश का निक्षेप विधि से कथन करके, निर्गम का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार ने महावीर के पूर्वभवों के वर्णन के साथ ही कुलकरों की चर्या, भगवान् ऋषभदेव के जीवन-परिचय में जन्म, नाम आदि घटनाओं का भी विस्तृत रूप से उल्लेख किया है। तीर्थंकर नामकर्म बंध के 20 कारणों का तथा उस युग के आहार, शिल्प, कर्म आदि 40 विषयों का भी उल्लेख किया है। ऋषभदेव के जीवन-चरित्र के साथ ही साथ अन्य सभी तीर्थंकरों का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए सम्बोधन, परित्याग, प्रत्येक, उपधि आदि 21 द्वारों से उनके जीवन चरित्र की तुलना की गई है। भरत चक्रवर्ती आदि के जीवन पर भी प्रकाश डाला है, साथ ही जिन, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि विषय का विस्तृत उल्लेख किया है। मरीचि के प्रसंग का रोचक वर्णन करते हुए कहा है कि मरीचि का जीव अनेक भवों में भ्रमण करते हुए अन्त में 24वें तीर्थंकर रूप में जन्म लेगा। तीर्थंकर महावीर के जीवन का स्वप्न, गर्भापहार, अभिग्रह, जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरण, भयोत्पादन, विवाह, अपत्य, दान, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण इन 13 द्वारों के माध्यम से वर्णन किया है। भगवान् को केवलज्ञान होने के बाद मध्यम पावा के महासेन उद्यान में उनका द्वितीय समवसरण में इन्द्रभूति आदि ग्यारह पंडित अपनी-अपनी शंका लेकर भगवान् के पास आए और शंका समाधान होने पर अपने शिष्यों सहित दीक्षित हो गये। इस प्रकार गणधरवाद का वर्णन करते हुए गणधरों के जन्म, गोत्र, मातापिता आदि का भी वर्णन किया गया है। इसके बाद क्षेत्र-कालादि द्वारों का वर्णन किया है। नयद्वार में नयों का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा है कि नय विशारद को श्रोता की योग्यता को देखकर ही नय का कथन करना चाहिए। कालिक का अनुयोग आर्यरक्षित ने पृथक् किया है साथ ही आर्यरक्षित का शिष्य मातुल गोष्ठामाहिल नामक सातवाँ निह्नव हुआ, इसका वर्णन करते हुए नियुक्तिकार ने इससे पूर्व महावीर के शासन में छह निह्नव हो चुके थे, उनका भी उल्लेख किया है। नय की दृष्टि से सामायिक पर चिन्तन करने के पश्चात् सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र ये तीन सामायिक के भेद किये गये हैं। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में रमण करती है, जिसके अतमानस में प्राणिमात्र के प्रति समभाव का समुद्र हिलोरें मारता है और संयम, नियम तथा तप में जिसकी आत्मा रमण करती है, वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है। इसी प्रकार शेष द्वारों का भी संक्षेप में वर्णन किया गया है। इन द्वारों की व्याख्या के साथ उपोद्घातनियुक्ति समाप्त हो जाती है। उपोद्घात का यह विस्तार केवल आवश्यकनियुक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि सभी नियुक्तियों के लिए उपयोगी है।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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