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________________ [344] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन न्यूनता का क्या कारण है? वैमानिक देव विशेष ऋद्धि एवं शक्ति सम्पन्न होते हुए भी ऊर्ध्व लोक का क्षेत्र भवनपति देवों से कम है? उत्तर - यह अन्तर स्वाभाविक है। वैमानिक देवों की अवधि का स्वभाव ही ऐसा है कि अपने विमानों की ध्वजा तक ही देखते हैं। वैसे अवधिज्ञान विविध स्वभाव वाला है। उस जाति के देवों के ऊर्ध्व अवलोकन का ऐसा ही स्वभाव है। इसका एक लाभ उन्हें यह होता है कि वे वैमानिक देव, अपने विमानों से ऊपर के देवलोक के देवों को और उनकी विशेष ऋद्धि आदि को नहीं देखते हैं जिससे उनके मन में खिन्नता उत्पन्न नहीं होती। अतः उनके अवधिज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है कि देवलोक की सीमा तक ही देख सकते हैं। षट्खण्डागम में भी वैमानिक देवों के उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र का वर्णन लगभग आवश्यकनियुक्ति जैसा ही मिलता है, साथ ही उन दोनों में जो विभिन्नता है, वह निम्न प्रकार से है - 1. श्वेताम्बर परम्परा में बारह देवलोकों का ही उल्लेख है जबकि दिगम्बर परम्परा में सोलह देवलोकों का उल्लेख है। जैसे कि 1. सौधर्म 2. ईशान 3. सनत्कुमार 4. माहेन्द्र 5. ब्रह्मलोक (ब्रह्म) 6. ब्रह्मोत्तर 7. लान्तक 8. कापिष्ठ 9. शुक्र 10. महाशुक्र 11. शतार 12. सहस्रार 13. आणत 14. प्राणत 15. आरण 16. अच्युत। सोलह में से बारह तो श्वेताम्बर परम्परा के ही नाम हैं, लेकिन उनका क्रम आगे पीछे है। वीरसेनाचार्य ने कौनसे देवलोक वाला कुल कितने रज्जु क्षेत्र और कितने काल को देखता है, इसका भी उल्लेख किया है। जैसे कि सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमान के ऊपरिम तलमंडल से लेकर प्रथम पृथ्वी के नीचे के तल तक डेढ़ रज्जु लम्बे और एक रज्जु विस्तार वाले क्षेत्र को देखते हैं। काल की अपेक्षा से असंख्यात करोड़ वर्षों की बात जानते हैं। इस प्रकार सोलह ही देवलोकों के क्षेत्र का उल्लेख धवला टीकाकार ने किया है।55 2. आवश्यकनियुक्ति में नवग्रैवेयक के विभाग करके अवधि का विषय बताया है। जबकि षटखण्डागम में नवग्रैवेयक का विषय एकसाथ (छठी नारकी तक) ही बताया है। अकलंक ने भी ऐसा ही वर्णन किया है। 3. धवलाटीकार ने नौ अनुदिश के देवों का उल्लेख करते हुए इनका भी अवधि क्षेत्र बताया है जैसे कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देव अपने-अपने विमानशिखर से लेकर नीचे निगोदस्थान से बाहर के वातवलय तक कुछ कम चौदह रज्जु लम्बी और एक रज्जु विस्तारवाली सब लोकनाली को देखते हैं। लेकिन इस प्रकार का उल्लेख नियुक्ति और भाष्य में नहीं मिलता है। 4. धवलाटीकाकार के अनुसार पांच अनुत्तर विमानवासी देव कुछ कम चौदह रज्जु लम्बी और एक रज्जु विस्तारवाली सब लोकनाली को देखते हैं। यहाँ लोकनाली अन्तर्दीपक है, ऐसा जानकर उसको सभी के साथ जोड़ना चाहिए। जैसे कि सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमान के शिखर से लेकर पहली पृथ्वी तक सम्पूर्ण लोकनाली को देखते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र के देव दूसरी पृथ्वी तक सब लोकनाली को देखते हैं। ऐसी संयोजना सभी कल्पवासी देवों के साथ कहनी चाहिए।59 लेकिन इस प्रकार का उल्लेख नियुक्ति और भाष्य में नहीं मिलता है। अकलंक ने भी लगभग षटखण्डागम जैसा ही उल्लेख किया है, किन्तु कल्पवासी देवों के अवधिज्ञान के क्षेत्र का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है, जैसे कि सौधर्म और 255. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 12-14, पृ. 316-320 256. आवश्यकनियुक्ति गाथा 47-48 257. षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59. गाथा 12, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.21, पृ. 55 258. षटखण्डागम, पु. 13, पृ. 319 259. षट्खण्डागम, पु. 13, पृ. 320
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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