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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [339] किसलिए कहा है? अथवा जो एक प्रदेशावगाही द्रव्य देखता है ऐसा नहीं कह कर सभी रूपी द्रव्यों को देखता है ऐसा कहें तो क्या बाधा है? उत्तर - जो परमाणु आदि सूक्ष्म द्रव्य को देखता है वह कार्मणशरीर आदि स्थूल द्रव्य को तो अवश्य देखता है। लेकिन जो स्थूल द्रव्यों को देखता है वह सूक्ष्म द्रव्यों को नियम से नहीं देखता है क्योंकि 'तेया-भासादव्वाण, अंतरा एत्थ लभइ पट्ठवओ। गुरुलहु अगुरुयलहुयं, तंपि य तेणेव निट्ठाइ।' (वि० भाष्य गाथा 627) के अनुसार अवधिज्ञानी अगुरूलघु द्रव्य को तो देख सकता है, लेकिन गुरूलघु द्रव्य को नहीं देख सकता है अथवा घटादि स्थूल वस्तु को भी नहीं देख सकता है। जैसेकि मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्य के सूक्ष्म होते हुए भी उसे प्रत्यक्ष देखता है और चिंतनीय घटादि वस्तु के स्थूल होते हुए भी उन्हें नहीं देख पाता है। ऐसा विज्ञान विषय की विचित्रता से संभव है। संशय का परिहार करने के लिए अर्थात् 'एक प्रदेशावगाढ द्रव्य जानते हैं' ऐसा कहने से शेष द्रव्यों के विषय में संशय रहता है इसलिए एक प्रदेशावगाढादि द्रव्य जानते हैं' आदि द्रव्य को विशेष कहा है। इसलिए इसमें कोई दोष नहीं है। अथवा एक प्रदेशावगाढ ऐसा कहने से परमाणु आदि द्रव्यों का और कार्मणशरीर कहने से बाकी के कर्मवर्गणा तक के द्रव्यों का, अगुरूलघु कहने से कर्म वर्गणा के ऊपर के द्रव्यों का और गुरुद्रव्य कहने से घट, पृथ्वी पर्वतादि का ग्रहण करना चाहिए। इस प्रमाण से समस्त पुद्गलास्तिकाय उत्कृष्ट अवधिज्ञान (परमावधिज्ञान) का विषय है। अतः 'सर्वरूपी द्रव्य जानते हैं' ऐसा भी कहा होता तो उसका भी इसमें समाधान आ गया है, क्योंकि समस्त पुद्गलास्तिकाय रूपी द्रव्य है।27 परमावधि का क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विषय परमावधि (उत्कृष्ट अवधिज्ञानी) क्षेत्र से लोक प्रमाण अलोक के असंख्याता खंड और काल से असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, द्रव्य से सभी रूपी द्रव्य और भाव से प्रत्येक की असंख्यात पर्याय को देखते हैं 28 परमावधि का उत्कृष्य क्षेत्र सभी सूक्ष्म, बादर अग्निकाय जीवों की सूचि बनाकर घुमाने पर जितना क्षेत्र प्राप्त होता है, उसके तुल्य होता है। विशेषावश्यक भाष्य की गाथा 685 में भी कहा है कि 'रूवगयं लहई सव्वं' अर्थात् परमावधिज्ञानी सभी रूपी द्रव्य को जानता है। काल और क्षेत्र तो अमूर्त होते हैं, लेकिन (रूपी पदार्थ की स्थिति के कारण वह) लोकप्रमाण असंख्याता खंड और असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में रहे रूपी द्रव्य को परमावधिज्ञानी जानता है अर्थात् रूपी द्रव्य से युक्त क्षेत्र और काल देखता है। रूपी द्रव्य के बिना क्षेत्र और काल को नहीं देखता, क्योंकि ये दोनों अमूर्त होते हैं। परमावधि होने के बाद अंतर्मुहूर्त में जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार सूर्य उदय से पहले उसकी प्रभा फैलती है वैसे ही परमावधि ज्ञान की प्रभा के बाद केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है। यहाँ तक मनुष्य गति सम्बन्धी क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का वर्णन पूर्ण हुआ।29 तिर्यंच तिर्यंच के जघन्य अवधिज्ञान का प्रमाण पनक जीव के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार उत्कृष्ट अवधिज्ञान का विषय द्रव्य प्रमाण से आहारक और तैजस द्रव्य है। उपलक्षण से यहाँ औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर के द्रव्य समझना चाहिए अर्थात् अवधिज्ञानी इन चारों वर्गणाओं के द्रव्यों को जानता है तथा उनके बीच में रहे हुए ग्रहण अयोग्य 228. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 685 227. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 675-684 229. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 685-689
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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