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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [3091 3. षट्खण्डागम के अनुसार षटखण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह भेद प्राप्त होते हैं, यथा 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. हीयमान, 5. वर्द्धमान, 6. अवस्थित, 7. अनवस्थित, 8. अनुगामी, 9. अननुगामी, 10. सप्रतिपाति, 11. अप्रतिपाति, 12. एक क्षेत्रावधि और 13. अनेक क्षेत्रावधि। इन भेदों में नियुक्तिगत अवधि, संस्थान, ज्ञान, दर्शन, विभंग, देश और गति आदि कुछेक भेद स्वीकार नहीं किए हैं। षट्खण्डागमकार ने देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ये तीन प्रकार नये बताये हैं। नियुक्ति में आनुगामिकअनानुगामिक, ऐसे व्यवस्थित भेद नहीं हैं, षट्खण्डागम में प्रथम तीन प्रकार का एक विभाग और बाद में शेष रहे दस प्रकारों को दो-दो के जोड़े रूप पांच युग्म के रूप में भेद प्राप्त होते हैं। नियुक्ति में आनुगामिक, अनानुगामिक और इनका मिश्र, इसी प्रकार प्रतिपाती, अप्रतिपाती आदि और इनका मिश्र भेद निरूपित है। मिश्र का यह भेद षट्खण्डागम में नहीं मिलता है। आचार्य गुणधर के अनुसार विषय की प्रधानता से अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। जिसमें से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों प्रकार का होता है। वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र। इन दस भेदों में से भवप्रत्यय अवधिज्ञान में अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अनेकक्षेत्र ये पांच भेद, गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में दसों भेद, देशावधि में दसों भेद, परमावधि में हीयमान, प्रतिपाती और एक क्षेत्र इनको छोड़कर शेष सात भेद और सर्वावधि में अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अप्रतिपाती और अनेकक्षेत्र, ये पांच भेद पाये जाते हैं। 4. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान के छह भेद प्राप्त होते हैं - 1. अनुगामी, 2. अननुगामी, 3. वर्धमान, 4.हीयमान, 5.अवस्थित और 6. अनवस्थित। पूज्यपाद, विद्यानंद, आचार्यनेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र और पंचसंग्रहकार ने भी मुख्य रूप से अवधिज्ञान के उपर्युक्त छह भेदों का ही उल्लेख किया है। नंदीसूत्र और तत्त्वार्थ सूत्र में प्रथम चार भेद समान हैं, लेकिन अंतिम दो भेदों में अंतर है। नंदी में प्रतिपाती, अप्रतिपाती और तत्त्वार्थ सूत्र में अवस्थित, अनवस्थित भेद हैं। लेकिन एक अपेक्षा से विचार करें तो अवस्थित (जितना अवधिज्ञान उतना रहे, जैसे कि शरीर के किसी अंग पर उत्पति से एक समान रहा हुआ मस्सा) का समावेश अप्रतिपाती में और अनवस्थित (उत्पन्न होने के बाद घटता, बढ़ता हो या नष्ट हो जाए, जैसे कि वायु से पानी में उठती तरंगों के समान) का समावेश प्रतिपाती में हो जाता है। अकलंक ने तत्त्वार्थसूत्र के छह भेदों का उल्लेख करके नंदीसूत्र में वर्णित प्रतिपाती, अप्रतिपाती इन दो भेदों का भी उल्लेख देशावधि के आठ भेदों में किया है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार अवधिज्ञान 90. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 56, 61, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 714, 739 91. कषायपाहुड, पृ.16,17 92. तत्त्वार्थसूत्र 1.23 93. सर्वार्थसिद्धि, 1.22 पृ. 90, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.22, गोम्मटसार (जीवकांड) भाग 2, पृ. 619, तत्त्वार्थसार, गाथा 25 27, पृ. 12, पंचसंग्रह, अधिकार 1, गाथा 124, पृ. 27 94. अनवस्थितं हीयते वर्धते वर्धते हीयते च । प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति । पुनः पुनरूर्मिवत्। अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतत्याकेवलप्राप्तेरवतिष्ठते। - तत्त्वार्थधिगमसूत्र (भाष्य एवं टीका), सूत्र 1.23, पृ. 99-100
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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