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________________ पंचम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [307] किरणें निकलती हैं और उससे द्रव्य ( वस्तु) प्रकाशित होता है" वैसे ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से सहज ही अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, वह गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है। क्षयोपशम का दूसरा अर्थ है गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला। क्षयोपशम अर्थात् उत्तरोत्तर चारित्र गुण की विशुद्धि होने से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुण प्रतिपन्न अवधिज्ञान है । यहाँ गुण शब्द चारित्र का द्योतक है अर्थात् गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के लिए मूलगुण कारणभूत है, इसका समर्थन जिनभद्रगणि हरिभद्र 2 मलयगिरि धवलाटीका 84 ने किया है । मूलगुण पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच के ही होते हैं, अपर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच के नहीं 15 उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में गुण शब्द सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत और महाव्रतों को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होता है। यदि हम क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का प्रयोग करते हैं तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के जीवों के अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है, जिसके फलस्वरूप सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान (अवधि अज्ञान) होता है। इस अपेक्षा से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान व्यापक है। जबकि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान का ही ग्रहण किया जाता है, मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान का नहीं । प्रश्न - क्या मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर अवधिज्ञान में कुछ अन्तर हो सकता है ? उत्तर - भवप्रत्यय अवधिज्ञान में संक्लिशमान और असंक्लिशमान भेद नहीं हैं। जैसे रंगीन कांच और सफेद पारदर्शी कांच से देखने में अन्तर होता है, वैसे ही पहले मिथ्यादृष्टि था, तब रंगीन कांच से देखता था अर्थात् अस्पष्ट (अयथार्थ) देखता था और सम्यग्दृष्टि होने के बाद पारदर्शी कांच से देखता है अर्थात् स्पष्ट ( यथार्थ) देखता है। मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर ज्ञेय द्रव्यों की वृद्धि नहीं होती, लेकिन ज्ञान पर्याय में विशुद्धि की वृद्धि होगी, क्योंकि जीव सही अर्थात् स्पष्ट (यथार्थ) देखने लगता है। अवधिज्ञान के अन्य प्रकार / गुणप्रत्यय के प्रकार जैन परंपरा में भवप्रत्यय और क्षायोपशमिक भेद के अलावा भगवती सूत्र आदि आगमों में. आवश्यकनिर्युक्ति, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान के अन्य भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार से हैं 1. आगमों में प्राप्त प्रकार भगवतीसूत्र में आधोऽवधिक और परमोवधिक का उल्लेख है । वहाँ छद्मस्थ की आधोवधिक से और केवली की परमोवधिक से तुलना की है। जैसे कि छद्मस्थ जीव परमाणु पुद्गल आदि को प्रमाण से जानता और देखता है उतने ही प्रमाण में आधोवधिक जानता और देखता है एवं जो परमावधिक 79. गुणमंतरेण जहा गणणब्भच्छादिते अहापवत्तितो छिद्देणं दिणकरकिरणव्व विणिस्सिता दव्वमुज्जोवंति, तहाऽवधिमावरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापवत्तितो विण्णेतो। नंदीचूर्णि पृ. 25 80. उत्तरुत्तरचरणगुणविसुज्झमाणवेक्खातो अवधिणाणदंसणावरणाय खयोवसमो भवति, तक्खयोवसमेण अवधी उप्पज्जति । नंदीचूर्णि पृ. 26 81. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 568 82. नंदीवृत्ति पृ. 26 83. गुणाः मूलोत्तररूपाः तान् प्रतिपन्नो गुणप्रतिपन्नः । - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 81 84. धवलाटीका पु. 13, सूत्र 5.5.45, पृ. 291 85. न ह्यसंज्ञिनामपर्याप्तकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति । संज्ञिनां पर्याप्तकानां च न सर्वेषाम् । सर्वार्थसिद्धि 1.22, पृ. 90
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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