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________________ [304] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन भव अर्थात् आयु और नामकर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव की जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं। भव के निमित्त से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं क्योंकि कमों के उदय से द्रव्यादि चारों में प्रभाव तो होता ही है। ऐसा ही उल्लेख पुष्पदंत,4 अकलंक और मलयिगिरि आदि आचार्यो ने भी किया है। भवप्रत्यय में प्रयुक्त प्रत्यय शब्द शपथ, ज्ञान, हेत. विश्वास, निश्चय आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। यहाँ प्रत्यय शब्द 'कारण' (निमित्त) अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।" विशेषावश्यकभाष्य, नंदीसूत्र, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों के अनुसार भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवता और नारकी में ही होता है। मलयगिरि ने देव और नारक की व्युत्पत्ति दी है। देव और नारक में भी जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनको ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। मिथ्यादृष्टि देव और नारक को विभंगज्ञान होता है। धवलाटीकाकार ने यहाँ देव, नारकी के पर्याप्त भव का ही ग्रहण किया है। अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव और नरकादि भव औदयिक भाव है। परस्पर विरुद्ध होने से नरकादि भव अवधिज्ञान का हेतु कैसे हो सकता है? वास्तव में तो नारकी और देवता के भी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होता है, परंतु नारकी और देव के भव में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नियम से होता है, इसलिए नारकी और देवता के अवधिज्ञान को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं। इसलिए भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी क्षयोपशम मुख्य कारण है। अकलंक ने भवप्रत्यय में भव को बाह्य कारण स्वीकार किया है। 2 जिनभद्रगणि के अनुसार भवप्रत्यय अवधिज्ञान में क्षयोपशम अंतरंग कारण होते हुए भी इस ज्ञान को भवप्रत्यय इसलिए कहा है जैसे पक्षियों में जन्म से ही आकाश में उड़ने की शक्ति होती है वैसे ही देव और नारकी के भव में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम सहज ही हो जाता है। ऐसा ही उल्लेख जिनदासगणि, हरिभद्रसूरि, और मलयगिरि ने भी किया है। प्रत्येक जीव का कोई न कोई वैशिष्ट्य होता है। मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ होते हुए भी सारी शक्तियाँ उसके पास नहीं होती हैं। जैसे पक्षी में उड़ने की शक्ति, कुत्ते में सूंघने की शक्ति, उल्लू में अंधेरे में देखने की शक्ति होती है। तिर्यच नामकर्म के उदय से वीर्य का इतना क्षयोपशम हो जाता है कि गाय का बछड़ा उसी दिन चलने लगता है, जबकि मनुष्य इनसे श्रेष्ठ है, फिर भी मनुष्य गति में इतना क्षयोपशम नहीं होता है। इसी प्रकार 53. भवः प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां वेदितव्यः । सर्वार्थसिद्धि, पृ. 89 54. षट्खण्डागम, पुस्तक 13, सूत्र 5.5.52 ___55. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.21.2 56. भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भव प्रत्ययं। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 76 57. प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम्। - सर्वार्थसिद्धि 1.21 पृ.89 58. तत्र दिव्यन्ति निरूपमक्रीडामनुभवन्तीति देवाः। नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणाकारयन्ति जन्तून् स्वस्थाने इति नरकाः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 77 59. देवनारकाणाम् इत्यविशेषाभिधानेऽपि सम्यग्दृष्टीनामेय ग्रहणम्। कुतः । अवधिग्रहणात्। मिथ्यादृष्टीनां च विभंग इत्युच्यते। - सर्वार्थसिद्धि सूत्र 1.21 पृ. 89 60. ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो। - षट्खण्डागम, पृ.13, सूत्र 5.5.43, पृ. 290 61. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 572-574 62. तस्मात्तत्र भव एव बाह्यसाधनमित्युच्चते। तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.21.4 63. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 569, 571 64. नंदीचूर्णि, पृ. 25, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 25 65. केवलं स क्षयोपशमो देवनारकभवेष्ववश्यंभावी, पक्षिणो गमनागमनलब्धिरिव ततो भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 77
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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