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________________ चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान [289] 19. पूर्व श्रुत - संख्यात वस्तु को ग्रहण करना एक पूर्व श्रुतज्ञान होता है। अथवा अनेक वस्तुओं को मिलाकर एक पूर्व होता है, ऐसा पूर्व का ज्ञान होना पूर्व श्रुत है। 20. पूर्व समास - पूर्व श्रुतज्ञान में एक अक्षर की वृद्धि होना पूर्व समास श्रुतज्ञान है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के सब अक्षरों की वृद्धि होने तक पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है। अथवा दो-तीन पूर्वो यावत् चौदह पूर्वो तक का ज्ञान होना पूर्व समास श्रुत है। प्रतिसारी विशिष्ट बुद्धिवाले जीव के श्रुत का अंतिमपूर्व (लोकबिंदुसार) का जो अन्तिम भावाक्षर है, उसके अन्तानन्त खण्ड करके उनमें से एक खण्डप्रमाण से ही शुरु होता है।33 कर्मग्रंथ में भी उक्त 20 भेदों के निरूपण में समास वाले भेदों में एक अक्षर अधिक का कथन नहीं है। 34 उपर्युक्त 20 भेदों में से प्रथम 19 भेदों का समावेश उत्पादपूर्व नामक प्रथम पूर्व में तथा शेष को समस्त अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य रूप वाङ्मय का पूर्वसमास नामक 20वें भेद में अंतर्भाव किया जाता है। षट्खण्डागम में अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य का विचार प्रमाण की अपेक्षा से हुआ है, स्वरूप की अपेक्षा से नहीं है। षट्खंडागम के अलावा श्रुतज्ञान के बीस भेदों का वर्णन हरिवंश पुराण एवं गोम्मटसार435 आदि में भी प्राप्त होता है। श्रुतज्ञान का विषय भाष्यकार ने विषय सम्बन्धी विशेष उल्लेख नहीं किया है। मात्र इतना ही कहा है कि रूप से श्रुतज्ञानी द्रव्यादि को यथार्थ जानते हैं, लेकिन इस प्रसंग पर श्रुतज्ञानी दर्शन से देखता है या नहीं, इसका वर्णन किया है। द्रव्यादि विषय का वर्णन जो नंदीसूत्र आदि में प्राप्त होता है, उसी का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। __ नंदीसूत्र के अनुसार - श्रुतज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का है, यथा - 1. द्रव्य से, 2. क्षेत्र से, 3. काल से और 4. भाव से 36 1. द्रव्य से - उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान में उपयोग लगाने पर सभी रूपी-अरूपी छहों द्रव्यों को जानते हैं तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों, इस प्रकार स्पष्ट देखते हैं। यहाँ सर्व शब्द श्रुत अथवा ग्रंथ की अपेक्षा से प्रयुक्त हुआ है। 2. क्षेत्र से - उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान में उपयोग लगाने पर सभी लोकाकाश व अलोकाकाश रूप क्षेत्र को जानते हैं तथा मानो प्रत्यक्ष देख रहे हों, इस प्रकार स्पष्ट देखते हैं ।138 3. काल से- उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान में उपयोग लगाने पर सभी पूर्ण भूत, भविष्य, वर्तमान काल को जानते हैं तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों इस प्रकार स्पष्ट देखते हैं।39 4. भाव से - उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान में उपयोग लगाने पर सभी रूपी अरूपी छहों द्रव्यों की सब पर्यायों को जानते हैं तथा मानो प्रत्यक्ष देख रहे हों, इस प्रकार स्पष्ट देखते हैं।40 433. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.48, पृ. 265-71 434. कर्मग्रंथ पृ. 18-29 435. षट्खंडागम पु. 13, 5.5.48 पृ. 260-272 एवं पुस्तक 6, सूत्र 1.9.1.14 पृ. 21-25, हरिवंश पुराण सर्ग 10 गाथा 14-26 पृ. 186-187, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 319-349 436. से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। - नंदीसूत्र पृ. 204 437. तत्थ दव्वओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ पासइ। - नंदीसूत्र पृ. 204 438. खित्तओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ। - नंदीसूत्र पृ. 204 439. कालओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ। - नंदीसूत्र पृ. 204 440. भावओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ। - नंदीसूत्र पृ. 204
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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