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________________ [6] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन राग-द्वेष विरक्त, अय अर्थात् अयन-गमन, अतः सम की ओर गमन करना समाय है और वही सामायिक है। इस प्रकार जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में सामायिक की व्याख्या अनेक निरुक्तों के माध्यम से की है। आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि 'समो-रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण् गतौ अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समयः-समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः समाय एव सामायिकम् अर्थात् राग-द्वेष के कारणों में मध्यस्थ रहना सम है। मध्यस्थभावयुक्त साधक की मोक्ष के अभिमुख जो प्रवृत्ति है, वह सामायिक है। वट्टेकर के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है, वह समय है, उसे ही सामायिक कहा गया है। इस प्रकार आवश्यक सूत्र की नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, हारिभद्रीया वृत्ति, मलयगिरिवृत्ति आदि में सामायिक के विविधि दृष्टियों से विभिन्नि अर्थ किये गए हैं। सामायिक का फल - सामायिक करने वाला साधक मन, वचन और काय को साध लेता है। वह विषय, कषाय और राग-द्वेष से विमुख हो कर ही समभाव में रमण करता है। विरोधी को देखकर उसके अन्तर्मानस में क्रोध उत्पन्न नहीं होता और हितैषी को देखकर वह राग से प्रसन्न नहीं होता है ।वह निन्दा और प्रशंसा से विचलित नहीं होता है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति हो, या प्रतिकूल, पर वह सदा समभाव में रहता है। सामायिक का साधक चिंतन करता है कि संयोग और वियोग ये दोनों ही आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। ये तो शुभाशुभ कर्मों के उदय का फल है। परकीय पदार्थों के संयोग और वियोग से आत्मा का न हित हो सकता है और न अहित ही। इसलिए वह सतत समभाव में रहता है। सामायिक की साधना बहुत ही उत्कृष्ट साधना है। अन्य जितनी भी साधनाएं हैं, वे सभी साधनाएं इसमें अन्तर्निहित हो जाती हैं। आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने 'सामाइयं संखेवो चोद्दस पुव्वत्थपिंडोत्ति'33 अर्थात् सामायिक को संक्षेप में चौदह पूर्व का अर्थपिण्ड कहा है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक को आद्यमंगल माना है। उपाध्याय यशोविजय ने तत्त्वार्थवृत्ति में सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी का सार रूप बताया है। ___ पात्र-भेद से सामायिक के दो भेद होते हैं - 1. गृहस्थ की सामायिक 2. श्रमण की सामायिक गृहस्थ की सामायिक परम्परा से 48 मिनिट अर्थात् एक मुहूर्त या दो घड़ी की होती है, किन्तु वह अपनी स्थिति के अनुसार अधिक समय के लिए भी सामायिक-व्रत कर सकता है। श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिए होती है। 2. चतुर्विंशतिस्तव - षडावश्यक में दूसरा आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव है। लोक के चौबीस उत्तम पुरुष तीर्थंकरों की स्तुति जिस आवश्यक में की जाती है, उसे चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। सामायिक नामक प्रथम आवश्यक में साधक सावध योग से निवृत्त हो कर कोई न कोई आलंबन स्वीकार करता है जिससे वह समभाव में स्थिर रह सके। अतः वह तीर्थंकरों की स्तुति करता है। 29. राग-द्दोसविरहिओ समो त्ति अयणं अयो त्ति गमणं ति। समगमणं ति समाओ स एव सामाइयं नाम। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3477 30. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3477-3486 31. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, 854 32. सम्मत्त-णाण-संजम-तवेहि-जं तं पसत्थसमगमणं। समयं तु तं भणिदं तमेव सामाइयं जाण। - मूलाचार गाथा 519 33. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2796 34. आदिमंगलं सामाइयज्झयणं - आवश्यक चूर्णि 35. तत्त्वार्थवृत्ति 1.1 36. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 796
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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