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________________ [260] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन कि पुराण मूल में गणधर कृत हैं। हमको तो ये वस्तुतः परम्परा से प्राप्त हुए हैं। महापुराण में भी ऐसा ही उल्लेख हुआ है। 10 यशोविजय ने अंगबाह्य को स्थविरकृत माना है। अतः अन्त में अंगबाह्य स्थविर कृत हैं यह मत स्थिर हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध दशवैकालिक, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार आदि अंगबाह्य के रचनाकार श्रुतकेवली है। इससे जिनभद्रगणि, पूज्यपाद, अकलंक का मत उचित प्रतीत होता है। कहीं-कहीं अंगबाह्य आगम की रचना के साथ तीर्थंकर और गणधर का भी उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तरकालीन आगम विभाजन धारणा शक्ति के ह्रास का ध्यान में रखकर, भावी अल्पमेधावी जनों के अनुग्रह हेतु आर्यरक्षित ने विषयवस्तु की अपेक्षा से स्थूल रूप से आगम साहित्य को चार भागों में विभाजित किया है12, यथा - 1. धर्मकथानुयोग (कथासाहित्य) 2. चरणकरणानुयोग (आचारविषयक) 3. गणितानुयोग (लोक-रचना, खगोलभूगोलविषयक) 4. द्रव्यानुयोग (द्रव्य-स्वरूप विषयक)। इन्हीं चार विभागों को निम्न प्रकार से कहते हैं - प्रथमानुयोग (धर्मकथा), चरणानुयोग (आचार), करणानुयोग (लोकस्वरूपादि), द्रव्यानुयोग (तत्त्वस्वरूप)। अंगबाह्य की रचना का उद्देश्य परम्परा से प्राप्त आचारांग आदि श्रुतज्ञानादि राशि अर्थतः और ग्रन्थत: बहुत विशाल है। वह अल्प आयुष्य अल्पमति और अल्पशक्ति वाले मनुष्यों के लिए दुर्ग्राह्य है। यह जानकर उनकी अनुकम्पा के लिए गणधरों से अतिरिक्त विशुद्ध आगमज्ञान से सम्पन्न स्थविरों ने दशवैकालिक आदि अनेक अनंगप्रविष्ट आगमग्रन्थों की रचना की है।13 अंगप्रविष्ट की रचना का उद्देश्य गणधर महाराज पूर्वो की रचना करते हैं, और उन पूर्वो मे सम्पूर्ण वाङ्मय का समावेश हो जाता है अर्थात् भूतवाद (दृष्टिवाद) में समस्त वाङ्मय का समावेश हो जाता है। फिर मन्दबुद्धि उपासक और स्त्रियों पर अनुग्रह के लिए शेष श्रुत ग्यारह अंगों आदि की रचना की जाती है।14 मलधारी हेमचन्द्र ने भूतवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिसमें सम्पूर्ण विषय युक्त सभी वस्तु समूह का प्रतिपादन किया गया है अथवा जिसमें सामान्य विशेषादि सभी धर्म युक्त जीवों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख है, वह भूतवाद (दृष्टिवाद) कहलाता है। 15 स्त्रियाँ तुच्छ स्वभाववाली, बहुत अभिमान युक्त, चपलेन्द्रिय और बुद्धि से मन्द होती हैं इसलिए स्त्रियों को अतिशययुक्त अध्ययन और भूतवाद देने की जिनेश्वरों की आज्ञा नहीं है। 16 जिसकी विस्तार से चर्चा पं. सुखलाल संघवी ने कर्मग्रंथ के विवेचन में की है।17 मलधारी हेमचन्द्र-18 ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य में अन्तर के निम्न कारण उल्लेखित किये हैं - 309. वर्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थों गणेश्वरम् । इन्द्रभूतिं परिप्राप्त सुधर्म धारणीभवम्।। प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु (नू) त्तरवाग्मिनम्। लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यत्नोऽयमुद्गतः।। पद्मपुराण, पर्व 1, गाथा 41-42 310. महापुराण (आदिपुराण) पर्व 1, गाथा 198-201 311. जैनतर्कभाषा पृ. 24 312. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2286-2291, 2511 एवं बृहद्वृत्ति 313. आवश्यक चूर्णि, 1 पृ. 8 314. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 551 315. मलधारी हेमचन्द्र, पृ. 253 316. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 552 317. कर्मग्रंथ, भाग 4, परिशिष्ट, 'त' पृ. 149-153 318. अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-आवस्सयं च, आवस्सय वइरित्तं च। - नंदीसूत्र, पृ. 160
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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