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________________ [256] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन घटित नहीं होगा? इसका उत्तर पूज्यपाद देते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सामान्य के संदर्भ में श्रुत अनादि-अपर्यवसित है। और विशेष की अपेक्षा वह सादि-सपर्यवसित है। अकलंक ने भी इसका समर्थन किया है।74 भवी-अभवी जीव की अपेक्षा से जिनभद्रगणि ने भवी और अभवी जीव की अपेक्षा से भी श्रुत की आदि और अंत की विचारणा का उल्लेख किया है। सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत दोनों की अपेक्षा श्रुत के चार भंग निम्न प्रकार से है - 1. सादि-सपर्यवसित, 2. सादि-अपर्यवसित 3. अनादि-सपर्यवसित और 4. अनादि-अपर्यवसित 75 1. सादि-सपर्यवसित - द्रव्य से एक पुरुष की अपेक्षा से उपुर्यक्त जो वर्णन किया गया है, वह प्रथम भंग के अनुसार ही है। 2. सादि-असपर्यवसित -श्रुत का सादि अपर्यवसित भंग शून्य है, क्योंकि वह मिथ्याश्रुत या सम्यक्श्रुत किसी में भी घटित नहीं होता। मलयगिरि ने इस का कारण बताते हुए कहा है कि आदि युक्त सम्यक्श्रुत अथवा मिथ्याश्रुत का कालान्तर में भी अवश्य अंत होता ही है।76 3. अनादि-सपर्यवसित - भवसिद्धिक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्याश्रुत का कभी आरंभ नहीं हुआ और भवी होने से अवश्य सम्यक्त्व और केवलज्ञान पायेगा। अतएव उसके मिथ्याश्रुत का विच्छेद अवश्य होगा। 4. अनादि-अपर्यवसित - यह चौथा भंग अभवी जीव की अपेक्षा से है। कभी भी मोक्ष में न जाने वाले (मिथ्यादृष्टि) जीव का मिथ्याश्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि वह अनादि मिथ्यादृष्टि होने से उसके मिथ्याश्रुत का कभी आरंभ नहीं हुआ (सदा से साथ लगा है) और वह सदाकाल मिथ्यादृष्टि ही रहेगा, अतएव उसके मिथ्याश्रुत का कभी व्यवच्छेद नहीं होता। यह भंग एक और अनेक अभवी जीवों की अपेक्षा से घटित होता है। नंदीसूत्र में सादि-सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित इन दो ही भंगों का उल्लेख है, जबकि भाष्यकार जिनभद्रगणि ने चार भंगों का उल्लेख किया है तथा बाद वाले आचार्यों ने भी जिनभद्रगणि का अनुसरण किया है 78 यशोविजयजी ने द्रव्यादि की अपेक्षा से विचार किया है। भव्य जीव और नय की अपेक्षा से नहीं 79 सादि सपर्यवसित भंग सम्यकुश्रुत की अपेक्षा से तथा शेष दो भंग मिथ्याश्रुत की अपेक्षा से हैं अथवा अनादि अपर्यवसित भंग अभवी जीव की अपेक्षा से तथा शेष दो भंग भवी जीव की अपेक्षा से हैं। द्वादशांगी गणिपटिक को नंदीसूत्र में ध्रुव, नित्य, शाश्वत बताया है। इसी अपेक्षा से हरिभद्रादि आचार्यों ने द्वादशांगी को अनादि-अपर्यवसित कहा है280 तथा जिनभद्रगणि आदि आचार्यों ने सम्यक्मिथ्याश्रुत की विचारणा में अंगप्रविष्ट के साथ अंगबाह्य का ग्रहण किया है।281 इससे स्पष्ट होता है कि अंगप्रविष्ट अंगबाह्य अनादि-अपर्यवसित तथा शेष श्रुत सादि-सपर्यवसित है। 274. सर्वार्थसिद्धि 1.20, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.7 275. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 544 की बृहवृत्ति, पृ. 251 276. मलयगिरि पृ. 198 277. अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसियं च, अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं च।-नंदीसूत्र, पृ. 157 278. नंदीचूर्णि पृ. 81, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 86, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 198 279. जैनतर्कभाषा पृ. 24 280. नंदीसूत्र पृ. 204, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 120, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 248 281. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 527, नंदीचूर्णि पृ. 77, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 78, मलयगिरि पृ. 193, जैनतर्कभाषा पृ. 23
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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