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________________ चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान [249] परिणति की अपेक्षा - इस प्रकार का यह बारह अंगों वाला गणिपिटक, चौदह पूर्वियों के लिए सम्यक्श्रुत है, उनसे उतरते-उतरते यावत् अभिन्न-पूर्ण दस पूर्वियों के लिए भी सम्यक्श्रुत है, क्योंकि ऐसे ज्ञानी जीव, नियम से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। अतएव वे इस श्रुत को सम्यक् रूप में ही परिणत करते हैं।41 जिनदासगणि, मलयगिरि ने तेरहपूर्वी, बारहपूर्वी, ग्यारहपूर्वी आदि पूर्वधरों का भी उल्लेख किया है।42 जो दस पूर्व से कम के पाठी होते हैं, उनके लिए यह सम्यक्श्रुत भी हो सकता है और मिथ्याश्रुत भी हो सकता है। जो मिथ्यादृष्टि होते हैं, वे मिथ्यादृष्टि रहते हुए कभी पूर्ण दस पूर्व नहीं सीख पाते, क्योंकि मिथ्यादृष्टि अवस्था का स्वभाव ही ऐसा है। जैसे अभव्यजीव, ग्रंथिदेश के निकट आकर भी ग्रंथिभेद नहीं कर पाता, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव, श्रुत सीखते-सीखते कुछ कम दस पूर्व तक ही सीख पाता है, पूरे दस पूर्व आदि नहीं सीख पाता। सम्यक्दृष्टि के लिए आचारांग से लेकर अभिन्न दशपूर्वधर के सभी श्रुत स्थान सम्यक् श्रुत और मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत हैं।243 प्रश्न - श्रुत सीखना तो ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से होता है, तो मिथ्यादृष्टि नववें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु से आगे क्यों नहीं सीख पाता है? उत्तर - ज्ञान सीखने में मुख्य कारण तो ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम ही है, लेकिन मिथ्यात्वमोहनीय उसे शुद्ध नहीं होने देता। जैसे पानी में दूध मिला हुआ हो तो उसमें धुन्धलापन रहता है, अतः अमुक पदार्थ उस पानी के नीचे रहते हुए धुन्धले दिखते हैं। इसी प्रकार दशपूणे तक का ज्ञान तो उसे धुन्धला दिखता है। मिथ्यात्व हटे बिना दस पूर्वो के ऊपर का ज्ञान होना सम्भव नहीं है। अभवी और भवी के पारिणामिक भावों में अन्तर होने से क्षयोपशम में भी अन्तर होता है। अभवी के पारिणामिक भावों में नववें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु से अधिक क्षयोपशम का विकास नहीं होता है एवं मिथ्यात्वी भवी के अपूर्ण दशपूर्वो से अधिक क्षयोपशम का विकास नहीं होता है। मिथ्याश्रुत सम्यक्दृष्टि के किस रूप में होते हैं मिथ्यादृष्टि मिथ्याश्रुत को मिथ्यारूप से ही ग्रहण करते हैं, अत: उनके लिए ये मिथ्याश्रुत ही हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि मिथ्याश्रुत को सम्यक्श्रुत रूप में ग्रहण करे तो उनके लिए ये भी सम्यक्श्रुत हैं। बहत्तर कलाएं आदि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यारूप में परिणत होने के कारण मिथ्याश्रुत होते हैं और सम्यक्त्वी के सम्यक् रूप में परिणत होने के कारण सम्यक् श्रुत होते हैं। कुछेक मिथ्यादृष्टि उन्हीं शास्त्रों से प्रेरित होकर अपने आग्रह को छोड़ते हैं 244 इसलिए मिथ्यादृष्टि के भी ये सम्यक् श्रुत हो सकते हैं, क्योंकि उनकी सम्यक्त्व प्राप्ति में ये हेतु बनते हैं। नंदीचूर्णि245 में इस सम्बन्ध में चार भंग प्राप्त होते हैं - 1. सम्यक्श्रुत सम्यक्श्रुत रूप - "सम्मसुतं सम्मदिट्ठिणो सम्मसुतं चेव" सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक्श्रुत सम्यक्श्रुत रूप है अर्थात् जीव अपने सम्यक्त्व गुण के कारण पढे श्रुत को सम्यक् रूप में ग्रहण करता है। 241. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 534 242. नंदीचूर्णि, पृ. 77, मलयगिरि, नंदीवृत्ति,पृ. 193 243. तेणं परं ति अभिण्णदसपुव्वेहितो......मिच्छसुतं भवति। - नंदीचूर्णि पृ. 77, मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 193 244. एयाई मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं। एयाई चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाइं सम्मसुयं। अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि एयाई चेव सम्मसुयं कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठिओ चयंति। - नंदीसूत्र, पृ. 155 245. नंदीचूणि, पृ. 79
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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