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________________ [244] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन शक्ति का द्वितीय अर्थ प्रवृति करते हुए कहते हैं कि जो जीव स्वयं के शरीर का पालन करने में समर्थ होता है, वह कारण शक्ति से विचार करके आहार आदि इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति करता है तथा अनिष्ट वस्तु में प्रवृत्ति नहीं करता हैं, वह जीव संज्ञी है, जबकि जिसमें यह कारण शक्ति नहीं, वह जीव असंज्ञी है। क्योंकि द्वीन्द्रिय से संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय तक के जीव संज्ञी है। जबकि पृथ्वी आदि एकेन्दिय जीव असंज्ञी है । हेतु की अपेक्षा संज्ञी असंज्ञी जीव यह संज्ञा जो दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी हैं- मन रहित हैं, उनमें से भी जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूर्च्छिम पाँच इंद्रिय वाले त्रस जीव हैं, उन्हीं में पायी जाती है, क्योंकि वे स्पर्शन इंद्रिय द्वारा शीत-उष्ण आदि का अनुभव कर उसे दूर करने के विचारपूर्वक धूप-छाँव आदि में गमन आगमन करते हैं। रहने के लिए स्थान, घर आदि बनाते हैं। भूख लगने पर उसे मिटाने की विचारणापूर्वक इष्ट आहार पाकर उसे खाने की प्रवृत्ति करते हैं, अनिष्ट आहार देख कर उससे निवृत्त होते हैं, जैसे-लट आदि। सुगंध की इच्छापूर्वक शक्कर आदि इष्ट गंध वाले पदार्थों के निकट पहुँचते हैं, अनिष्ट गंध वाले पदार्थों से हटते हैं, जैसे- चींटियाँ आदि । रूप की इच्छापूर्वक रूपवान, गंधवान रसवान पुष्प आदि पर पहुँचते हैं, अनिष्ट रूप, गंध, रसवान पुष्प आदि पर नहीं पहुँचते हैं, जैसे भ्रमर आदि। जो एक इन्द्रिय वाले स्थावर जीव हैं, उनमें यह संज्ञा नहीं पायी जाती, क्योंकि उनमें वर्तमान का विचार बोध भी अत्यन्त मन्द होता है और तत्पूर्वक गमन आगमन की वीर्य शक्ति भी नहीं होती । अतः संज्ञा की अपेक्षा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव संज्ञी और एकेन्द्रिय असंज्ञी हैं । 2 13 निष्कर्ष यह है कि हेतुवाद की दृष्टि से जो जीव संज्ञी है। वह जीव कालिकवादकी दृष्टि में असंज्ञी है। हेतु की अपेक्षा संज्ञी असंज्ञी श्रुत जिन जीवों में यह हेतु संज्ञा पायी जाती है, उन जीवों का श्रुत, हेतु संज्ञा की अपेक्षा 'संज्ञी श्रुत' है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का श्रुत, हेतु संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी श्रुत है । दीर्घकालकिकी और हेतुवाद संज्ञा में अन्तर दीर्घकालिकी संज्ञा त्रैकालिक होती है। हेतूपदेशिकी संज्ञा वर्तमान कालिक होती है। इस संज्ञा में कहीं कहीं अतीत और अनागत का चिंतन भी होता है, परंतु इस विषय में वर्तमानकाल के समीप होती है, किन्तु दीर्घकालिक चिंतन नहीं होता है। जबकि दीर्घकालिक संज्ञा के जीवों के विचार सुदीर्घ भूत-भविष्यकालीन होते हैं 12 14 इसलिए नंदी में टीकाकारों के कालिक शब्द के पूर्व दीर्घ विशेषण सहेतुक दिया है। इससे संज्ञी - असंज्ञी के तीन प्रकार के निरूपण में संमूर्छिम पंचेन्द्रियादि हेतुवादसंज्ञी जीव कालिक संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी हैं और कालिक संज्ञी जीवो में सम्यक्त्व का अभाव होता है, तो वे जीव दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी है। 3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा दृष्टिवाद की अपेक्षा जिनके संज्ञीश्रुत-सम्यक् श्रुत का क्षयोपशम हो, वे संज्ञी और जिनके असंज्ञी श्रुत - मिथ्या श्रुत का क्षयोपशम हो, वे असंज्ञी हैं 2715 213. नंदीचूर्णि पृ. 74 214. विशेषावश्यभाष्य गाथा 516 मलयगिरि पृ. 190 215. दिट्टिवाओवएसेणं सण्णिसुयस्स खओवसमेणं सण्णी लब्भइ, असण्णिसुयस्स खओवसमेणं असण्णी से तं दिट्टिवाओवएसेणं । से त्तं सण्णिसुयं से तं असण्णिसुयं । नंदीसूत्र, पृ. 150 - लब्भइ ।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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