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________________ [240] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन संज्ञा के प्रकार आवश्यकचूर्णि में मुख्य रूप से संज्ञा के दो प्रकार बताये हैं - 1. क्षायोपशमिक संज्ञा - कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न, जैसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली आभिनिबोधिक संज्ञा है। 2. कर्मौदयिक संज्ञा - कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होने वाली आहार आदि संज्ञाएं।178 कर्मोदय से निष्पन्न संज्ञा के चार प्रकार हैं - आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । प्रज्ञापना सूत्र में संज्ञा के दस प्रकार बताये हैं - 1. आहार संज्ञा 2. भय संज्ञा 3. मैथुन संज्ञा 4. परिग्रह संज्ञा 5. क्रोध संज्ञा 6. मान संज्ञा 7. माया संज्ञा 8. लोभ संज्ञा 9. लोक संज्ञा और 10. ओघ संज्ञा।180 भगवतीसूत्र शतक 7 उद्देशक 8 में भी ऐसा ही उल्लेख है। ___ आचारांगनियुक्ति में आहारादि दस संज्ञाओं के अतिरिक्त मोह, धर्म, सुख, दु:ख, जुगुप्सा और शोक इन छह संज्ञाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। ये संज्ञायें सब जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती हैं। इसलिये ये संज्ञी-असंज्ञी व्यवहार की नियामक नहीं है। आगमों में संज्ञी और असंज्ञी का भेद अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से हैं। संज्ञी का स्वरूप ईहा, अपाय आदि के द्वारा आगे-पीछे का भूत-भविष्य और वर्तमान को सोचकर निर्णय ले वह संज्ञी कहलाता है। सामान्य रूप से जिस जीव के संज्ञा होती है, वे संज्ञी हैं और जिसके संज्ञा नहीं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। बौद्ध परम्परा के अभिधर्मकोश भाष्य में भी संज्ञी और असंज्ञी का उल्लेख मिलता है।182 भगवतीसूत्र में पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावर और अनेक प्रकार के त्रस जीव को असंज्ञी बताया है।183 जीवाजीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के अनुसार पृथ्वीकायिक पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूर्छिम मनुष्य असंज्ञी ही होते हैं, अन्य गर्भज मनुष्य, ज्योतिष्क और वैमानिक के देव संज्ञी ही होते हैं। नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर और तिर्यंच पंचेन्द्रिय संज्ञी और अंसज्ञी होते हैं। सिद्ध भगवान् नो संज्ञी नो असंज्ञी होते है। ऐसा ही वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के संज्ञीपद (31वें) में भी प्राप्त होता है। लेकिन उपर्युक्त वर्णन से संज्ञा का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। दशाश्रुतस्कंध14 में दस चित्त समाधि के स्थानों में पूर्वजन्म को स्मरण करने के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त हुआ है। आचारांगसूत्र185 के प्रारंभ में पूर्वभव के ज्ञान के प्रसंग में अर्थात् विशेष प्रकार के मतिज्ञान के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त हुआ है। आवश्यकनियुक्ति में भी संज्ञा को अभिनिबोध (मतिज्ञान) कहा है। इसका कारण यह हो सकता है कि संज्ञा शब्द पहले मतिज्ञान के विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता होगा। बाद वाले काल में इसका सम्बन्ध श्रुतज्ञान से होगा हो। षट्खण्डागम में भी संज्ञा का वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं किया है।187 धवला में संज्ञी शब्द के 178. आवश्यकचूर्णि, भाग 2, पृ. 80 179. आवश्यक (नवसुत्ताणि) 4.8 180. तंजहा-आहार सण्णा, भय सण्णा, मेहुण सण्णा, परिग्गह सण्णा, कोह सण्णा, माण सण्णा, माया सण्णा, लोह सण्णा, लोय सण्णा, ओघ सण्णा। - प्रज्ञापनासूत्र पद 8 181.आहार भय परिग्गह मेहुण सुख दुक्ख मोह वितिगिच्छा। कोह मान माय लोहे सोगे लोगे य धम्मोहे। आचारांगनियुक्ति गा० 39 182. अभिधर्मकोश भाष्य 2.41, 42 183. भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 7, पृ. 171 184. सण्णिजाइसरणेणं सण्णिणाणं वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा...... | - दशाश्रुतस्कंध, पांचवी दशा, पृ. 34 185. इहमेगेंसि णो सण्णा भवति। आचारांग सूत्र, 1.1.1 पृ. 1 186. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 396 187. षट्ख ण्डागम, पु. 1, सू. 1.1.172, पृ. 408, पु. 7 पृ. 111-112
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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