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________________ [236] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि अक्षर का सम्बन्ध केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों से है। अक्षर की पर्याय का परिमाण सामान्य रूप से निरूपित है। यहाँ अक्षर का सम्बन्ध श्रुत-अक्षर और केवल-अक्षर दोनों के साथ जोड़ा जा सकता है। श्रुत-अक्षर के जितने स्व-पर पर्याय हैं, उतने ही पर्याय केवल-अक्षर के हैं।152 ऐसा ही उल्लेख षट्खण्डागम में भी प्राप्त होता है, उनके अनुसार लब्ध्यक्षर ज्ञान अक्षरसंज्ञक केवल का अनन्तवां भाग है। अतएव सिद्ध हुआ कि जीव के (केवलज्ञान या) श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्य उघड़ा रहता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने उपर्युक्त चर्चा में प्राप्त दो मतों का समन्वय इस प्रकार से किया है कि ज्ञान की भेद सहित विवक्षा करेंगे तब तो लब्ध्यक्षर का सम्बन्ध मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से करना होगा एवं ज्ञान से सामान्य रूप से केवलज्ञान का ग्रहण करते हैं तो लब्ध्यक्षर को केवलज्ञान का अनन्तवां भाग स्वीकार करने में बाधा नहीं होगी।154 दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरसेनाचार्य के अनुसार सूक्ष्म निगोदिया जीव के ज्ञान को अक्षर कहा जाता है, क्योंकि यह ज्ञान नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहता है अथवा केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चूंकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक का ज्ञान भी वही है, इसलिए भी इस ज्ञान को अक्षर कहते हैं। 55 अक्षर ज्ञान में कौन सा अक्षर इष्ट है ____ अक्षर ज्ञान में लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और संस्थानाक्षर में से लब्धि अक्षर उपयोगी होता है। जबकि निर्वत्यक्षर और संस्थानाक्षर से नहीं, क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं।55 लब्ध्यक्षर का प्रमाण केवलज्ञान का अनन्तवां भाग है। लब्ध्यक्षर ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनन्तवां भाग हमेशा अनावृत्त रहा है। लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशि का भाग देने पर सब जीव राशि से अनन्तवें गुण ज्ञानाविभाग प्रतिच्छेदक होते हैं।157 सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है, इसी को प्रायः लब्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं। इतना ज्ञान हमेशा निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है। श्रुत की अनादिता उपर्युक्त वर्णन के अनुसार जीव के (केवलज्ञान या) श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्य उघड़ा रहता है अर्थात् जीव में ज्ञान रहता है। ज्ञान का यह अनन्तवाँ भाग ही जीव और अजीव में भेद करता है। इससे सिद्ध होता है कि जब से जीव है तब से ही उसमें ज्ञान है। जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि अनन्त है। इसलिए श्रुत भी अनादि है। श्रुत सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित है। 58 श्रुत के समान मति को भी अनादि समझना चाहिए, क्योंकि जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ नियम से मतिज्ञान है। लब्ध्यक्षर के भेद नंदीसूत्र में लब्ध्यक्षर के श्रोत्र आदि पांच ज्ञानेन्द्रिय जन्य और मनोजन्य रूप छह भेद होते हैं, यथा- 1. श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, 2. चक्षुरिन्द्रिय लब्ध्यक्षर, 3. घ्राणेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, 4. जिह्वेन्द्रिय 152. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 496 153. तं पुण लद्धिअक्खरं अक्खरसण्णिदस्स केवलणाणस्स अणंतिमभागो। - षट्खण्डागम पु. 13 पृ. 263 154. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र पृ. 126 155. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.48 पृ. 262 156. षखंडागम, पु. 5.5.48 पृ. 265 157. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.48 पृ. 262 158. से तं साइअं सपज्जवसिअं, से तं अणाइअं अपज्जवसि। - नंदीसूत्र, पृ. 158
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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