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________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं वृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन (100000/1000=100) इस प्रकार स्व- पर्याय तो 100 तथा शेष 99900 पर पर्याय होती है । वह उस अकार से अविद्यमान से सम्बद्ध है। यही प्रमाण इकारादि, परमाणु आदि की पर्याय का भी समझ लेना चाहिए। 23 [232] अक्षर की स्व- पर पर्याय अभिलाप्य वस्तु का कथन वर्णों के द्वारा होता है । अतः अभिलाप्य भाव अकार आदि वर्णों (अक्षर) की स्वपर्याय है। शेष अनभिलाप्य भाव अक्षर की पर पर्याय है। अक्षर की स्व-पर्याय अल्प होने से परपर्याय के अनन्तवें भाग जितनी हैं और पर-पर्याय, स्व-पर्याय से अनन्तगुणा अधिक होती है। 24 अनभिलाप्य (अप्रज्ञापनीय) भावों का अनन्तवां भाग अभिलाप्य ( प्रज्ञाननीय ) भाव है। प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग श्रुतनिबद्ध है | 1250 अकार की स्व-पर्याय और पर पर्याय अन्य वर्णों से असंयुक्त अथवा संयुक्त अकार की उदात्त अनुदात्त, सानुनासिक निरनुनासिक आदि अस्तित्व से सम्बद्ध होने के कारण स्वपर्याय है और यह अनन्त है। शेष इकार, घट आदि की पर्याय नास्तित्व से सम्बद्ध होने के कारण अकार की पर पर्याय है 126 अर्थात् स्वपर्याय से भिन्न सभी पर्याय परपर्याय है। जैसे कि अकार वर्ण की अपेक्षा आकार, ककार आदि वर्णों की पर्याय और घट आदि वस्तु के रूप आदि पर्याय परपर्याय है। वह स्वपर्याय से अनंतगुणा अधिक है। जिनदासगण ने इसका समर्थन किया है। मलयगिरि ने उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहा है कि कर का अर्थ किरण होता है यह कर की एक प्रकार की पर्याय होती है। परंतु जहां कर का अर्थ हाथ होता है यह कर की दूसरे प्रकार की पर्याय है । ऐसे कर, घट, पट आदि वाच्य अनन्त होने से अकार वर्ण की स्वपर्याय अनंत है। 128 इसी प्रकार आकार, इकार आदि प्रत्येक अक्षर की पर्याय अनन्त है। आवश्यकचूर्णि में स्व-पर्याय और परपर्याय के भी दो-दो भेद किए हैं सम्बद्ध और असम्बद्ध । जैसे अकार की स्वपर्याय अपने अस्तित्व से सम्बद्ध है और नास्तित्व से असम्बद्ध है। अकार की वही स्वपर्याय अन्य अक्षरों के अस्तित्व से असंबद्ध है और उनके नास्तित्व से संबद्ध है। इसी प्रकार अकार की जो परपर्याय है, वह उसके नास्तित्व से संबद्ध है और अस्तित्व से असंबद्ध है तथा यह अन्य अक्षरों के अस्तित्व से सम्बद्ध और नास्तित्व से असंबद्ध है । 130 अकारादि की स्वपर्याय मूल वस्तु के साथ संबंधित हो सकती हैं, लेकिन परपर्याय किस प्रकार संबंधित हो सकती है ? इस शंका का समाधान करते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि 1. अकार इकारादि में स्वपर्याय अस्तित्व रूप से सम्बद्ध और उसकी परपर्याय नास्तित्व रूप से सम्बद्ध है। जैसेकि घट के साथ घट के अतिरिक्त द्रव्यों की पर्याय नास्तित्व धर्म से संयुक्त है। 2. घटादि पर्याय विद्यमान रूप से अक्षर से असम्बद्ध है, तो भी वह पर्याय अक्षर की है, क्योंकि अभाव रूप में वह उससे संयुक्त है जैसे पुरुष के साथ चैतन्य संबंधित है वैसे ही धन संबंधित नहीं है। लेकिन स्वयं उपयोग आदि के कारण धन उसके साथ संबंधित माना जाता है 3. जिस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र पर्यायों के गोचर स्वकार्य निष्पादक सर्वद्रव्य-पर्यायस्वधन की अपेक्षा से भिन्न होते हुए भी श्रद्धा करने योग्य, जानने योग्य और क्रियाफल में उपयोगी 123. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 477 की बृहद्वृत्ति, पृ. 222 125. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 141 127. नंदीचूर्णि पृ. 83 129. नंदीचूर्णि पृ. 83 124. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 487-488 126. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 478 128. मलयगिरि पृ. 199 130. आवश्यकचूर्णि 1, पृ. 28-29
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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