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________________ [22] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 2. अक्षरभिन्न की अपेक्षा से - आवश्यकनियुक्ति में अक्षर, संज्ञी आदि चौदह भेदों का वर्णन है, जबकि षट्खण्डागम में प्रमाण की अपेक्षा पर्याय आदि बीस भेदों का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बराचार्य देवेन्द्रसूरि ने दोनों परम्पराओं का समन्वय करते हुए कर्मग्रंथ में आवश्यक नियुक्ति के आधार पर चौदह और षट्खण्डागम के आधार पर बीस भेदों का उल्लेख किया है। 4. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र की परंपरा में आवश्यकनियुक्ति के अक्षरश्रुतादि चौदह भेदों में से अंतिम दो भेदों अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का उल्लेख है। अंगबाह्य के अनेक भेद (कालिक-उत्कालिक की अपेक्षा से) और अंगप्रविष्ट के बारह (आचारांग आदि) भेदों का वर्णन है।4 तत्त्वार्थसूत्र में श्रुतज्ञान के मात्र दो भेदों के उल्लेख का कारण यह हो सकता है कि सूत्रकार ने संक्षिप्त शैली की प्रयोग किया अथवा आगमों का महत्त्व प्रतिपादन करने के लिए अक्षरश्रुत आदि भेदों की उपेक्षा करके दो ही भेदों का उल्लेख किया हो। लेकिन अकलंक ने अक्षर-अनक्षर का भी उल्लेख किया है। ___ नंदीकार और जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि आदि नंदी के टीकाकर तथा यशोविजयजी ने नियुक्तिगत चौदह भेदों, वीरसेचानाचार्य ने षट्खण्डागमगत भेदों एवं पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानंद आदि आचार्यों ने तत्त्वार्थगत भेदों का समर्थन किया है। इस प्रकार एक ओर तो श्रुत के भेदों की चर्चा भिन्न-भिन्न प्रकार से हुई है, जबकि दूसरी ओर सिद्धसेन दिवाकर आदि आचार्यों ने मति और श्रुत को अभिन्न स्वीकार किया है। समीक्षा - उपर्युक्त वर्णन में आवश्यक नियुक्ति के भेद अधिक उचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि अनुयोगद्वार में जो श्रुत के भेद कहे गये हैं, वे तो एक प्राचीन कालीन निक्षेप पद्धति है, अतः वे श्रुत के वास्तविक भेद नहीं हो सकते हैं। षट्खण्डागमगत बीस भेद विस्तार पूर्वक हैं। जिनका संक्षिप्तिकरण नियुक्ति के भेदों में हो सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में जो दो भेद किये हैं, वह अतिसंक्षिप्त है, उनको कुशाग्रबुद्धि (व्युत्पन्नमति) वाले शिष्य ही समझ सकते हैं। सामान्यबुद्धि (अव्युत्पन्नमति) वाले शिष्य नहीं समझ सकते हैं। अतः आवश्यकनियुक्ति के अक्षरादि चौदह भेद ही अधिक तर्कसंगत और उचित प्रतीत होते हैं। जिभद्रगणि ने भी विशेषावश्यकभाष्य में भी इन्हीं चौदह भेदों का विस्तार से वर्णन किया है, जो कि निम्न प्रकार से हैं। 1. अक्षर श्रुत अक्षर शब्द 'क्षर संचलने' धातु से बना है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार अनुपयोग काल में भी जिसका क्षरण (नाश) नहीं होता है, वह अक्षर है। अक्षर का सामान्य अर्थ ज्ञान (चेतना) है। अक्षर नैगमादि अशुद्ध नय से जीव के ज्ञान परिणाम रूप है और ऋजुसूत्रादि शुद्ध नय से ज्ञान क्षर (चलना) है, इसलिए वह अक्षर नहीं है, क्योंकि उपयोग अवस्था में ही ज्ञान होता है। अनुपयोग अवस्था में ज्ञान नहीं होता है। इसको बृहदवृत्ति में मलधारी हेमचन्द्र स्पष्ट करते हुए कहा है कि यदि अनुपयोगावस्था में ज्ञान स्वीकार करेंगे तो घटादि में भी ज्ञान मानना पड़ेगा। ऋजुसूत्रादि शुद्धनय की दृष्टि में मिट्टी आदि सभी पर्याय और घटादि सभी पदार्थ उत्पाद और व्यय स्वभाव वाले हैं, अतः क्षर 62. आवश्यकनियुक्ति गाथा 18, विशेषावश्यकभाष्य 449, षट्खण्डागम, पु. 13 सू. 5.5.47, पृ. 260 63. कर्मग्रन्थ भाग 1, गाथा 6-7 64. तत्त्वार्थसूत्र 1.20, तत्त्वार्थभाष्य 1.20 65. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.15 66. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, पृ. 16-17 67. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 455
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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