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________________ [218] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जयसेनाचार्य के अनुसार - जिस आत्मा ने मतिज्ञान से पदार्थ जाना था, वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर जब मूर्त और अमूर्त पदार्थ को जानता है, तो वह श्रुतज्ञान कहलाता है।' श्रुतज्ञान का अन्य ज्ञानों से वैशिष्ट्य चार ज्ञान (श्रुतज्ञान को छोड़कर) वस्तु तत्त्व के प्रतिपादन में सक्षम नहीं होने के कारण स्थापनीय है। इसलिए इनके उद्देश (अध्ययन का निर्देश), समुद्देश (स्थिरीकरण का निर्देश) और अनुज्ञा (अध्यापन का निर्देश) नहीं होते इसलिए इन चार ज्ञानों को स्वार्थ कहा गया है। जबकि श्रुतज्ञान के उद्देश, समद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होते है, इसलिए श्रुतज्ञान को परार्थ कहते है। श्रुतज्ञान के अलावा शेष मति आदि चार ज्ञान शब्दातीत है। अतः वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में समर्थ नहीं है। इस असमर्थता के कारण ही मति आदि चार ज्ञान स्थाप्य है। नंदीचूर्णिकार और नंदीटीकाकार के अनुसार स्थाप्य का अर्थ है, असंव्यवहार्य है। जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके वह व्यवहार्य होता है। एक व्यक्ति के मतिज्ञानादि दूसरे व्यक्ति के लिए उपयोगी नहीं हो सकते हैं, इसलिए ये चार ज्ञान असंव्यवहार्य है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान ये तीन ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम तथा केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से होता है। श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानवरण के क्षयोपशम से होता है साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह मतिपूर्वक तथा परोपदेश से होता है। अतः सामन्यतः पराधीन (गुरु आदि के अधीन) होने पर भी वह वस्तु के स्वरूप का बोध कराने में समर्थ है। जिनभद्रगणि का कहना है कि दीपक अपनी उत्पत्ति में पराधीन होते हुए भी वह स्व और पर के स्वरूप को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी स्व और पर के स्वरूप का प्रकाशन और विश्लेषण करने में समर्थ है। पर-प्रबोधक होने से ही वह शिक्षा अथवा व्याख्या के लिए अधिकृत है। श्रुतज्ञान गुरु से प्राप्त होता है, इसलिए वह प्रायः पराधीन है। यहाँ प्रायः शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि प्रत्येकबुद्ध आदि का श्रुतज्ञान स्वायत्त होता है, परायत्त नहीं। श्रुतज्ञान एवं केवलज्ञान की तुलना 1. केवलज्ञान के विषयभूत अनन्त अर्थ को श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से ग्रहण कर लेता है। 2. केवलज्ञान की भांति श्रुतज्ञान भी नय के द्वारा त्रिकालिक पदार्थों को ग्रहण कर लेता है। 3 बारह अंग (द्वादशांग) चौदहपूर्व रूप ज्ञान को परमागम कहते हैं और यह द्रव्य श्रुत है। इस श्रुतज्ञान से मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों को जाना जा सकता है। यह ज्ञान व्याप्ति ज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष है, तो भी केवलज्ञान के सदृश है। कहा भी है कि ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही समान होते हैं, तो भी श्रुतज्ञान परोक्ष है, तथा केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। 4. स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों सर्व तत्त्वों का प्रकाशन करने वाले हैं। केवलज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों में मात्र परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से जानने मात्र का भेद है। आत्मा के लिए श्रुतज्ञान का महत्व 1. आवश्यकचूर्णि के अनुसार श्रुतज्ञान से मति आदि चारों ज्ञान जाने जाते हैं तथा उनकी प्ररूपणा होती है। चार ज्ञान स्वसमुत्थ तथा श्रुतज्ञान परसमुत्थ है।" 37. पंचास्तिकाय, तात्पर्य वृत्ति, पृ. 143 38. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 839, मलधारी हेमचन्द्र, बृहद् वृत्ति पृ. 341 39. पंचास्तिकाय, तात्पर्य वृत्ति गाधा 99 पृ. 261-262 40. आप्तमीमांसा परिच्छेद 10, गाथा 105, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 369 41. आवश्यक चूर्णि भाग 1, पृ. 77
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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