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________________ [202] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन उसमें मतिज्ञान नहीं होता है । प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है, क्योंकि जिसको पहले मतिज्ञान प्राप्त हुआ है, वही उपशम और क्षपक श्रेणी को प्राप्त करके अकषायी होता है। 7. लेश्या द्वार - कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है, क्योंकि प्रतिपद्यमान की अपेक्षा विशुद्ध लेश्या वाले को ही मतिज्ञान होता है, अविशुद्ध लेश्या वाले को नहीं, इसलिए कृष्णादि तीन अविशुद्ध लेश्या में प्रतिपद्यमान में मतिज्ञान नहीं होता है। तेजो, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभलेश्याओं में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। अलेश्यी में भी मतिज्ञान नहीं होता है । 8. सम्यक्त्व द्वार - इस द्वार की व्याख्या निश्चयनय और व्यवहारनय के माध्यम से की गई है, यह जिनभद्रगणि का वैष्ट्रिय है । व्यवहारनय की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है, वह सम्यक्त्व का और ज्ञान का प्रतिपद्यमानक होता है । निश्चयनय की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि ज्ञानी सम्यक्त्व तथा ज्ञान को प्राप्त करते हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं। इसकी विस्तार से चर्चा जिनभद्रगणि ने गाथा 414-426 में की है। उसका सारांश यह है कि व्यवहारनयवादी के मत से सम्यग्दृष्टि मतिज्ञान का पूर्वप्रतिपन्न होता है, प्रतिपद्यमान नहीं। क्योंकि सम्यक्त्व और ज्ञान युगपद् प्राप्त होते हैं, उस समय क्रिया का अभाव होता है। क्रिया के अभाव में प्रतिपद्यमान घटित नहीं होता है। जबकि निश्चयनयवादी के मत से सम्यग्दृष्टि ही मतिज्ञान का पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान होता है, क्योकि क्रिया और कार्यनिष्ठा का काल एक साथ विद्यमान रहता है । 9. ज्ञान द्वार - ज्ञान पांच प्रकार का होता है, यथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान। व्यवहारनय के मत से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान होता है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से नहीं होता है। ज्ञानी को पुनः ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है । केवलज्ञानी में दोनों अपेक्षाओं से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि मतिज्ञान क्षयोपशमिक है, जबकि केवलज्ञान क्षायिक है । मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान वाले में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान नहीं होता है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना (विकल्प) है । निश्चयनय के मत से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है । मनः पर्यवज्ञानी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान हो सकता है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि सम्यक्त्व के साथ ही मतिज्ञान होता है और उसके बाद ही अप्रमत्त अवस्था में मनः पर्यवज्ञान की उत्पत्ति होती है। लेकिन किसी जीव को सम्यक्त्व सहित चारित्र की प्राप्ति होने पर मतिज्ञान के साथ मन:पर्यवज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होती है। यदि ऐसा नहीं हो तो अवधिज्ञानी के समान मनः पर्यवज्ञानी भी प्रतिपद्यमान होता । केवलज्ञानी में दोनों अपेक्षाओं से मतिज्ञान नहीं होता है । मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान वाले में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि ज्ञानी को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। 10. दर्शन द्वार - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । लब्धि की अपेक्षा से प्रथम तीन दर्शनों में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। उपयोग की अपेक्षा से पूर्वप्रतिपन्न में मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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