SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [196] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन के ज्ञान की उपलब्धि होना प्रत्यभिज्ञान (यह वही है) है। कदाचित् बहुत अर्थों का जाति द्वारा खोज करना अनुसंधान प्रत्यय है। धवलाटीकाकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुछ आचार्य अनिःसृत के स्थान पर निःसृत का प्रयोग करते हैं, लेकिन यह उचित्त नहीं है, क्योंकि इससे तो मात्र उपमा का ज्ञान ही होता है। वस्तु के एक देश का ज्ञान होना निःसृत है।06 पूज्यपाद के समकालीन कुछ आचार्य 'अपरेषां क्षिप्रनिःसृत ..... इति।'507 इस सूत्र में क्षिप्र के बाद में निःसृत को स्वीकार करते हैं, क्योंकि शब्द सामान्य का ग्रहण अनि:सृत है, जबकि यह शब्द मयूर का है, ऐसा विशिष्ट ज्ञान निःसृत है। इस प्रकार उन्होंने अनिःसृत से निःसृत को श्रेष्ठ माना है। लेकिन बाद वाले आचार्यों ने इसका समर्थन नहीं किया है। मिश्रित-अमिश्रित - जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने निश्रित और अनिश्रित का जो दूसरा अर्थ किया है, उसी को मलयगिरि ने मिश्रित और अमिश्रित कहा है। 08 9-10. निश्चित (उक्त)-अनिश्चित (अनुक्त)- उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेनाचार्य आदि आचार्यों ने उक्त-अनुक्त का, जबकि जिनभद्रगणि और उसके बाद के आचार्यों ने निश्चित और अनिश्चत शब्दों का उल्लेख किया है। अतः दोनों परम्पराओं में नाम और अर्थ भिन्न हैं। ___ 1. उक्त-अनुक्त - पूज्यपाद के अनुसार अन्य के द्वारा कथन किया अथवा नहीं किया, ऐसी वस्तु को अभिप्राय से जानना अनुक्त है जबकि अन्य के उपदेश से ग्रहण उक्त है। अकलंक के अनुसार 'अनुक्त' का अर्थ बिना कहा हुआ है। जैसेकि यह गाय का शब्द है इस प्रकार परोपदेश से होने वाला ज्ञान उक्त है। दो प्रकार के द्रव्यों के मिश्रण को बिना कहे ही जान लेना कि यह मिश्रण अमुक द्रव्यों से तैयार किया है, यह अनुक्त ज्ञान है। धवलाटीकाकार के अनुसार विशिष्ट वस्तु के ग्रहण के समय ही जो गुण इन्द्रिय का विषय नहीं है, ऐसे गुणों से युक्त वस्तु को जानना अनुक्त ज्ञान है। चक्षु के द्वारा लवण, शर्करा आदि के ग्रहण के समय कदाचित् उसके रस का ज्ञान होना अनुक्त है।10 अनुक्त का विपरीत उक्त है। पूज्यपाद ने उक्त और नि:सृत में अन्तर बताते हुए कहा है कि सभी पुद्गलों का निस्सरण समान होने से एक होते हुए भी उक्त में परोपदेश पूर्वक ग्रहण होता है, जबकि निःसृत में स्वत: ग्रहण होता है। इस कथन का समर्थन अकलंक ने भी किया है। धवलाटीका के अनुसार उक्त में नि:सृत और अनिःसृत दोनों का समावेश होने से उक्त और नि:सृत भिन्न हैं। अनिःसृत में वस्तु के अल्पभाग का ज्ञान आवश्यक है, जबकि अनुक्त में वस्तु के अल्पभाग का ज्ञान आवश्यक नहीं है। धवलाटीका के अनुसार अदृष्ट, अश्रुत और अननुभूत वस्तु अनुक्त का विषय है। 2. निश्चित-अनिश्चित - जिनभद्रगणि के कथनानुसार किसी व्यक्ति ने जिस पर्याय को जाना, वह भी बिना ही संदेह के जाना, जैसे यह गन्ने का रस है, वह नीम का है। स्पर्श से तथा गन्ध से अन्धकार में भी उन्हें पहचान लेना। अपने अभीष्ट व्यक्ति को दूर से आते हुए ही पहचान लेना। यह सोना है, यह पीतल है आदि को संदेह रहित जानना। निश्चित रूप में जानना अर्थात् असंदिग्ध रूप में जानना, निश्चित है। शंका युक्त जानना अर्थात् हेतु का सहारा लिए बिना स्वरूप को जान लेना, अनिश्चित है। हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजय ने ऐसा ही उल्लेख किया है।12। 506. धवला, पु. 13, पृ. 238 507. सर्वार्थसिद्धि 1.16, पृ. 81 508. अथवा परधर्मैर्विमिश्रितं यद्ग्रहणं तन्मिश्रितावग्रहः, यत्पुनः परधमैरमिश्रितस्य ग्रहणं तदमिश्रितावग्रहः। - मलयगिरि पृ. 183 509. तत्वार्थसूत्र 1.16, सर्वार्थसिद्धि 1.16 राजवार्तिक 1.16.12, धवला पु. 13 पृ. 239 510. राजवार्तिक 1.16.12, धवला पु. 13 पृ. 239 511. सर्वार्थसिद्धि 1.16 पृ. 81 512. विशेषावश्यकभाष्य 308-310, मलयगिरि पृ. 183, जैनतर्कभाषा पृ. 21
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy