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________________ तृतीय अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [177] तार्किक परम्परा के आचार्य अकलंक आदि ने ऊह को अनुमान उपयोगी होने से व्याप्तिज्ञान के रूप में स्वीकार करते हुए परोक्षज्ञान रूप में मान्य किया है।374 इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि ऊह त्रिकालगोचर और परोक्ष है, जबकि ईहा वर्तमानकालिक अर्थविषयक और व्यवहारप्रत्यक्ष है । यशोविजय ने भी समन्वय का प्रयास करते हुए कहा है कि जो श्रुतज्ञान मूलक ऊह है वह श्रुत है और मतिज्ञान रूप जो ऊह है, वह मति रूप है 76 मीमांसक तर्क को प्रमाण रूप में स्वीकार करते हैं। जबकि न्याय, बौद्ध दर्शन आदि तर्क को प्रमाण रूप नहीं मानते हैं ईहा का प्रामाण्य उमास्वाति के अनुसार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। 78 जिनभद्रगणि, अकलंक, प्रभाचन्द, हेमचन्द्र आदि ने भी ईहा को प्रमाण रूप में स्वीकार किया है धवलाटीकाकार इसको विशेष स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि 1. ईहा वस्तु को ग्रहण करके प्रवृत्त होती है और उसका लिंग ज्ञान होता है, इसलिए वह ज्ञान रूप है। 2. ईहा वस्तु विशेष के ज्ञान का कारण है, यह वस्तु के एकदेश को जान चुकी है और वह संशय और विपर्यय से भिन्न है। 3. अनध्यवसाय रूप होने से ईहा अप्रमाण है, यह मानना उचित नहीं है, क्योंकि यह तीन लोक की सभी वस्तुओं में शुक्ल आदि के बीच में एक वस्तु की स्थापना करती है 1380 ईहा के भेद ईहा के छह भेद होते हैं, यथा 1. श्रोत्रेन्द्रिय ईहा 2. चक्षुरिन्द्रिय ईहा 3. घ्राणेन्द्रिय ईहा, 4. जिह्वेन्द्रिय ईहा, 5. स्पर्शनेन्द्रिय ईहा तथा 6. अनिन्द्रिय ईहा 1381 प्रश्न- ईहा मन से की जाती है या श्रोत्र आदि भावेन्द्रिय से ? उत्तर- जो मन रहित असंज्ञी जीव हैं, वे ही मात्र उस उस श्रोत्र आदि भाव इंद्रियों के द्वारा शब्द आदि की ईहा करते हैं, परन्तु जो मन सहित संज्ञी जीव हैं, वे तो उस उस श्रोत्र आदि भावेन्द्रियों के साथ-साथ भावमन से भी शब्द आदि की ईहा आदि करते हैं। ईहा के पर्यायवाची नाम विशेष अपेक्षा से ईहा की विभिन्न पाँच अवस्थाएं होती हैं - आभोगनता, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श [P] पांचों पर्यायवाची शब्दों के अर्थ की व्याख्या नंदीचूर्णि हारिभद्रीय वृत्ति और मलयगिरि वृत्ति के आधार पर निम्न प्रकार से है १. आभोगनता अर्थावग्रह से पदार्थ को अव्यक्त रूप में ग्रहण करने के पश्चात् निरन्तर गृहीत पदार्थ की विशेष अर्थाभिमुखी आलोचना प्रारंभ हो जाना 'आभोगनता' है। जैसे- किसी ने सूर्यास्त के समय वन में पुरुष के समान स्थाणु को देखा, उस समय उसका उस देखे हुए स्थाणु के प्रति यह विचार होना कि 'क्या यह स्थाणु है ?" आभोगनता है। यह ईहा की पहली अवस्था है। 374. राजवार्तिक 1.13.12, श्लोकवार्तिक 1.13.2 375. प्रमाणमीमांसा 1.1.27 376. श्रुतज्ञानमूलोहादेश्च श्रुतत्वं मतिज्ञानमूलोहादेः मतिज्ञानत्ववदेवाभ्युपेयम् । ज्ञानबिन्दुप्रकरणम् पृ. 8 377. प्रमाणमीमांसा टिप्पण पृ. 77 378. तत्वार्थसूत्र 1.11 379. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 182, राजवार्तिक 1.15.6-7, न्यायकुमुदचन्द्र पृ. 173, 'अवग्रहादीनां वा क्रमोपजनधर्माणां पूर्वं पूर्वं प्रमाणमुत्तरमुत्तर फलम् ' प्रमाणमीमांसा 1.1.39 380. धवला पु. 13, सू. 5.5.23 पृ. 218-19 382. नंदीसूत्र, पृ. 131 381. नंदीसूत्र, पृ. 131 383. नंदीचूर्णि, पृ. 59, हारिभद्रीय, पृ. 59 मलयगिरि, पृ. 175-176
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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