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________________ [172] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन कुछ आचार्य शंका करते हैं कि अवग्रहादि ज्ञान ही नहीं होते हैं, क्योंकि वे संशय की भांति स्पष्ट अर्थ का प्रकाशन नहीं करते हैं। जिनभद्रगणि इस शंका का निवारण करते हुए अवग्रह आदि के ज्ञान रूप होने की सिद्धि में हेतु देते हैं कि अवग्रह, ईहा आदि का अनुमान प्रमाण की भांति संशय आदि में अफ़्रभाव नहीं होता है, इसलिए अवग्रह आदि संशयादि से पृथक् है तथा वे ज्ञान रूप से है। ईहा भी संशय रूप नहीं है, क्योंकि 'यह स्थाणु है या पुरुष है' इस प्रकार के संशय को ईहा नहीं मानकर अन्वय धर्म की संभावना और व्यतिरेक धर्म के त्यागने से निश्चय सन्मुख जो बोध होता है, उसे ईहा कहते हैं। ऐसा बोध निश्चयाभिमुख होने से संशय नहीं कहलाता है। इस प्रकार अवग्रहादि में संशयादि नहीं होते हैं, यदि आपके अनुसार होते हैं तो भी वह ज्ञान रूप ही है। 42 शंका - संशयादि वस्तु के एक देश को जानते हैं, इसलिए वे ज्ञान भेद हो सकते हैं, लेकिन संशयादि अंश रहित होने से उनमें देश का अभाव होता है। इसलिए संशयादि एक देशग्राही कैसे होते हैं? समाधान - जिनभद्रगणि कहते हैं कि घटादि मिट्टी से बने हुए होते हैं। ये मोटे, लम्बी ग्रीवा युक्त हैं इत्यादि अर्थपर्याय अनन्त हैं तथा घट, कुंभ, कलश आदि वचन रूप पर्याय भी अनन्त हैं। इस प्रकार एक ही वस्तु की अर्थपर्याय और वचनपर्याय रूप अनन्त शक्तियुक्त वस्तु है। अत: उस वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाले संशयादि ज्ञान रूप हैं।43 शंका - संशयादि तीन मतिज्ञान रूप हैं तो इस प्रकार मतिज्ञान के अवग्रहादि चार भेदों में संशयादि तीन भेद मिलाने पर सात भेद होते हैं। समाधान - यह योग्य नहीं है क्योंकि अनध्यवसाय सामान्य मात्रग्राही होने से उसका अवग्रह में समावेश होता है, संशय का ईहा में और विपर्यय का निश्चय रूप होने से अपाय में समावेश हो जाता है। इसलिए मतिज्ञान के अवग्रहादि चार ही भेद होंगे।44 शंका - यदि संशयादि तीन को आप ज्ञान रूप मानते हैं तो संसार में कोई भी अज्ञानी नहीं रहेगा, क्योंकि इनको ज्ञान रूप मानने से अज्ञान रूप लोक व्यवहार का नाश होता है, लेकिन लोक में तो अज्ञान व्यवहार है, तो उसकी व्यवस्था कैसे होगी? समाधान - मिथ्यादृष्टि के संशयादि तथा निर्णय अज्ञान रूप है तथा सम्यग्दृष्टि के संशयादि तथा निर्णय ज्ञान रूप हैं। इस प्रकार मानने से अज्ञान व्यवहार का नाश नहीं होता है। आगम का भी यही अभिप्राय है। इस प्रकार जिनभद्रगणि ने संशयादि को ज्ञान रूप स्वीकार किया है। जबकि अकलंक ने संशयादि को ज्ञान रूप स्वीकार नहीं किया है।45 अवग्रह के पर्यायवाची नाम आवश्यकनियुक्ति, नंदीसूत्र में अवग्रह के पांच अपर नाम बताये हैं - अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलंबनता और मेधा। इसी प्रकार षट्खण्डागम में भी अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रह के पर्यायवाची नाम बताये हैं।46 इन पर्यायवाची नामों के द्वारा इन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति बताई है। अवग्रहणता आदि पांच शब्दों के अर्थ नंदीचूर्णि, हारिभद्रीय और मलयगिरि के आधार पर निम्न प्रकार से हैं347 - 342. विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 312-314 बृहवृत्ति का भावार्थ 343, विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 315-316 बृहद्वृत्ति का भावार्थ 344. विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 317 345. राजवार्तिक 1.15 346. आवश्यकनियुक्ति गाथा , नंदीसूत्र पृ. , षटखण्डागम (धवला टीका), पु. 13 सू. 5.5.37 पृ. 242 347. नंदीचूर्णि पृ. 58, हारिभद्रीय पृ. 58, मलयगिरि पृ. 174
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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