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________________ तृतीय अध्याय विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान [169] उसे प्रमाण मानने का जैनदर्शन में अनेक बार खण्डन किया गया है। पूज्यपाद, अकलंक आदि जो जैनदार्शनिक व्यंजनावग्रह को अव्यक्तग्रहण के रूप में मानते हैं वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में नहीं आता है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण तो विशदतालक्षण वाला होता है। 'स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष होता है' यह प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण जैनदर्शन में सर्वस्वीकृत है। व्यंजनावग्रह में अस्पष्टता होती है, इसलिए उसका समावेश प्रत्यक्षप्रमाण में किसी भी प्रकार नहीं हो सकता। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में "प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह है एवं अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है" यह जो कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होने का क्रम निश्चित है । व्यंजनावग्रह में जब प्राप्त अर्थ का ग्रहण होता है तब अर्थावग्रह में वह अप्राप्त अर्थ का ग्रहण कैसे हो सकता है ? जो पूर्व में प्राप्त (सन्निकर्ष युक्त) है वह अनन्तर काल में अप्राप्त नहीं हो सकता । चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता, इसलिए उनसे प्रारंभ में ही अर्थावग्रह होता है, किन्तु अन्य इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह होता है, यह नियम है। अतः वीरसेनाचार्य द्वारा निरूपित लक्षण व्यंजनावग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। व्यंजनावग्रह यदि अविशद अवग्रह के रूप में स्वीकार किया जाता है तो विशदता के अभाव में उसका प्रत्यक्षप्रमाण होना सिद्ध नहीं होता 1327 अर्थावग्रह प्रमाण कैसे ? डॉ. धर्मचन्द जैन के अनुसार जिनभद्रगणि आदि के द्वारा वर्णित स्वरूप, नामादि की कल्पना से रहित एवं अनिर्देश्य अर्थावग्रह में स्व पर निश्चयात्मकता का अभाव होने के कारण प्रमाणता सिद्ध नहीं है। 328 लेकिन नैश्चयिक और व्यावहारिक (उपचरित) अर्थावग्रह में से उपचरित ( व्यावहारिक) अर्थावग्रह निर्णयात्मक एवं विशद होता है, इसमें संदेह कतई नहीं है । स्व एवं पर का निर्णयात्मक होने के कारण यह प्रमाण तथा विशद होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध होता है अकलंक आदि दार्शनिकों के मत में अर्थावग्रह निर्णयात्मक होने से प्रमाण रूप ही है, किन्तु उस अर्थावग्रह का काल एक समय का है, यह आगम - मान्यता खण्डित हो जाती है। क्योंकि एक समय में निर्णयात्मक ज्ञान का होना शक्य नहीं है। फिर भी विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, देवसूरि आदि दार्शनिकों ने अवग्रह को प्रमाण माना ही है। आचार्य विद्यानन्द अवग्रह को संवादक होने के कारण भी प्रमाण सिद्ध करते हैं । अवग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने के लिए वे तर्क देते हैं - अवग्रह प्रमाण है, क्योंकि वह संवादक है, साधकतम है, अनिश्चित अर्थ का निश्चायक है और प्रतिपत्ता को उसकी अपेक्षा रहती है। अवग्रह को प्रमाण मानने का साक्षात् फल है स्व एवं अर्थ का व्यवसाय इसका परम्पराफल तो ईहा एवं हानादि बुद्धि का होना है 330 इस प्रकार आचार्य विद्यानन्द ने अवग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु उपस्थित किए हैं। ये हेतु अवग्रह के निश्चयात्मक रूप को प्रस्तुत करते हैं। निश्चयात्मकता के साथ उन्होंने स्पष्टता भी अंगीकार की है तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में - " वह अर्थावग्रह इन्द्रियबल से उत्पन्न होता है, स्पष्ट रूप से प्रकाशक होता है, वस्तु का ज्ञान कराता है, इसलिए वह निर्णयात्मक रूप से सिद्ध है । व्यंजन को विषय करने वाला व्यंजनावग्रह अस्पष्ट होता है। यहाँ विद्यानन्द के मत यहाँ विद्यानन्द के मत में अर्थावग्रह प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध होता है, क्योंकि वह 11331 327. ‘जैनप्रमाणशास्त्रेऽवग्रहस्य स्थानम्' स्वाध्याय शिक्षा, जुलाई, 1994 328. ‘जैनप्रमाणशास्त्रेऽवग्रहस्य स्थानम्' स्वाध्याय शिक्षा, जुलाई, 1994 329. विशेषावश्यकभाष्य 288 द्वादशभेदों के लिए द्रष्टव्य, तत्त्वार्थसूत्र 1.16 330. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.15 331. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.15.43
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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