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________________ [166] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन उत्तरपक्ष – नहीं, क्योंकि विशदावग्रह निर्णयरूप होता है और भाषा, आयु व रूपादि विशेषों को ग्रहण करने वाला अविशदावग्रह अनिर्णयरूप होता है। पूर्वपक्ष अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय रूप है। उत्तरपक्ष - 1. ऐसा नहीं है, क्योंकि वह कुछ विशेषों के अध्यवसाय से सहित है। 2. उक्त ज्ञान विपर्यय स्वरूप होने से भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती है। यदि कहा जाय कि वह चूंकि विपर्यय ज्ञान का उत्पादक है, अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे विपर्ययज्ञान के उत्पन्न होने का कोई नियम नहीं है। 3. संशय का हेतु होने से भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि कारणानुसार कार्य होने का नियम नहीं पाया जाता तथा अप्रमाणभूत संशय से प्रमाणभूत निर्णय प्रत्यय की उत्पत्ति होने से उक्त हेतु व्यभिचारी है। 4. संशयरूप होने से भी वह अप्रमाण नहीं है - इस कारण ग्रहण किये गये वस्तु अंश के प्रति अविशदावग्रह को प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहार के योग्य है, ‘मैंने कुछ देखा है' इस प्रकार का व्यवहार वहां भी पाया जाता है । किन्तु वस्तुतः व्यवहार की अयोग्यता के प्रति वह अप्रमाण है 12 प्रमाणमीमांसीय परम्परा प्रमाण के जैन दर्शन में अनेक लक्षण दिए गये हैं, यथा 1. स्व एवं पर का आभासी (व्यवसायक ) एवं बाधारहित ज्ञान प्रमाण है 13 2. स्व एवं पर का अवभासक (व्यवसायात्मक/प्रकाशक) ज्ञान प्रमाण है 14 3. व्यवसायात्मक ज्ञान स्व एवं अर्थ का ग्राहक माना गया है, इसलिए व्यवसायात्मक अथवा निर्णयात्मक ज्ञान ही मुख्य प्रमाण है । 15 4. स्व एवं अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है 1316 5. स्व एवं अपूर्व अर्थ का व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है। 17 6. स्व एवं अर्थ की निर्णीतिस्वभाव वाला ज्ञान प्रमाण है 7. स्व एवं पर का व्यवसायक ज्ञान प्रमाण है 1319 8. अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है प्रमाण के इन लक्षणों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में वही ज्ञान प्रमाण होता है जो स्व एवं पर का निश्चयात्मक होता है। जो ज्ञान स्व एवं पर (अर्थ) का निश्चयात्मक नहीं होता वह प्रमाण नहीं माना जाता है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण कोटि में नहीं आता है, क्योंकि वह सम्यक् नहीं होता है । स्व का एवं अर्थ (पदार्थ, वस्तु) का सम्यक् निर्णय ही प्रमाण होता है, यह सभी जैन दार्शनिकों के द्वारा स्वीकृत है। इस लक्षण में हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि का प्रयोजन ही प्रमुख है । इसलिए संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय 312. षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 9, सू. 4.1.45, पृ. 145-146 313. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । सिद्धसेन, न्यायावतार, 1 314. स्वपरावभासकं ज्ञानं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् । समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, 63 315. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् । ग्रहण निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते। अकलंक, लघीयस्त्रय, 60 316. तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता । विद्यानन्द, तत्वार्थश्लोकवार्तिक 1.10.78 317. स्वार्थपूर्वार्धव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षम्। माणिक्यनन्दी परीक्षामुख 1.1 318. प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानमिति । - अभयदेवसूरि, तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. 518 319. स्वपरव्यवसायिकज्ञानं प्रमाणम् । वादिदेवसूरि, प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1.2 320. सम्यगर्थनिर्णियः प्रमाणम् । हेमचन्द्र, प्रमाणमीमांसा 1.1.3
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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