SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [153] अवग्रह ही है। जिस विमर्श के बाद या तो अंतिम निर्णय हो जाए या फिर ज्ञान का ऐसा क्षयोपशम हो कि ईहा की प्रवृत्ति नहीं हो तो, वह अपाय ही होगा। ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण आयुकाल में भी अपाय की प्रवृत्ति नहीं हो पाएगी, क्योंकि उक्त विमर्श की प्रवृत्ति की कोई काल सीमा नहीं है। जिस पदार्थ से पहले ईहा नहीं हुई तो उस शब्द का निश्चय ज्ञान मानना युक्तियुक्त नहीं है, और जिससे पहले ईहा प्रवृत्त होती है, वह अवग्रह नहीं होकर अपाय होता है ।28 अवग्रह के भेद और उनका स्वरुप अवग्रह के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि इन्द्रिय एवं पदार्थ का सन्निकर्ष होने के पश्चात् पहले निर्विकल्प दर्शन होता है एवं फिर जो पदार्थ का सामान्य एवं अनिर्देश्य ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। अवग्रह के स्वरूप के संबंध में जैनाचार्यों के निरूपण में भिन्नता भी प्राप्त होती है। अवग्रह के भेद - व्यंजन और अर्थ का ग्राहक होने के कारण अवग्रह दो प्रकार का है - 1. व्यंजनावग्रह - अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होना व्यंजनावग्रह है और 2. अर्थावग्रह - इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है। अवग्रह के इन दो भेदों का उल्लेख सर्वप्रथम नंदीसूत्र में मिलता है ।29 ऐसा ही उल्लेख जिनभद्रगणि230 और यशोविजयजी31 ने भी किया है एवं दिगम्बर आगम षट्खण्डागम की धवला टीका में भी अवग्रह के इन्हीं दो भेदों का निरूपण है |32 श्रोत्र आदि उपकरण द्रव्य इन्द्रियों के साथ शब्दादि पुद्गलों का व्यंजन यानी सम्बन्ध-संयोग होना अर्थात् अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होना 'व्यंजनावग्रह' कहलाता है। यद्यपि व्यंजनावग्रह के द्वारा ज्ञान नहीं होता तथापि उसके अन्त में होने वाले अर्थावग्रह के ज्ञानरूप होने से, अर्थात् ज्ञान का कारण होने से व्यंजनावग्रह भी उपचार से ज्ञान माना गया है। इसी प्रकार आगम-ग्रंथों में अवग्रह के नैश्चयिक और व्यावहारिक एवं विशदावग्रह और अविशदावग्रह ये भेद भी किये गये हैं। अवग्रह, ईहा का भेदाभेद, अवग्रह के भेदों के स्वरूप में मतभेद, अवग्रह और दर्शन में भेदाभेदता, अवग्रह और संशय में अन्तर, अवग्रह अवाय में अन्तर, अवग्रह ज्ञान प्रमाण है या नहीं इत्यादि विषयों के आधार पर अवग्रह का विशद वर्णन एक ही आगम अथवा ग्रंथ में एक साथ उपलब्ध नहीं होता है। अतः अवग्रह के स्वरूप को समझने के लिए जिज्ञासुओं को भिन्न-भिन्न आगम और ग्रंथों का अवलोकन करना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए सम्बद्ध साहित्य का समीक्षण करके प्रस्तुत शोध में उनका उल्लेख किया गया है। व्यंजनावग्रह का स्वरूप जिनभद्रगणि के अनुसार - उपकरणेन्द्रिय और विषय का संबंध व्यंजन कहलाता है। जिस प्रकार दीपक से घट प्रकाशित होता है, उसी प्रकार जिससे अर्थ व्यक्त (प्रकट) होता है, वह व्यंजनावग्रह होता है।233 228. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 181 229. उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अत्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य। - नंदीसूत्र पृ. 128 230. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 193, 336, राजवार्तिक 1.19.31 231. "स द्विविधः - व्यंजनावग्रहः, अर्थावग्रहश्च।" जैनतर्कभाषा, पृ. 7 232. षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 1, सू. 1.1.115, पृ. 354 233. वंजिज्जइ जेणत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तं च। उवगरणिंदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसंबंधो। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 194
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy