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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान 4. पारिणामिकी जो बुद्धि, अवस्था के परिपक्व होने से पुष्ट हुई है, जिसमें अनुमानों, हेतुओं और दृष्टान्तों का अनुभव है और इनके बल पर अपना हित और कल्याण साध सकती है, उसे 'पारिणामिकी बुद्धि' कहते हैं अर्थात् परिणामों से जो बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे 'पारिणामिकी बुद्धि' कहते हैं । स्वतः के अनुमान, अन्य लोगों से सुने हुए तर्क और घटित हुए तथा घटित हो रहे दृष्टान्तों के ज्ञान से पारिणामिकी बुद्धि सधती है। ज्यों-ज्यों वय में परिपाक आता है, त्यों-त्यों पारिणामिकी बुद्धि में परिपाक आता है। पारिणामिकी बुद्धि से किये गये कार्य से इहलोक तथा परलोक में हित होता है और अन्त में निःश्रेयस (मोक्ष) की उपलब्धि होती है।204 जिनभद्रगणि के अनुसार परिणाम जिसका प्रयोजन है, वह पारणामिक है। परिणाम के दो अर्थ किये हैं - 1. मन से पूर्व और पश्चात् अर्थ का एकाग्रता पूर्वक चिंतन करना 2. उम्र में वृद्धि होने से जो बुद्धि में परिक्वता आती है, वह परिणाम है । मलयगिरि ने प्रथम अर्थ का समर्थन किया है 1205 धवलाटीका के अनुसार जातिविशेष से उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिको है । इसलिए औत्पतिकी, वैनयिकी और कर्मजा से भिन्न बुद्धि का अंतर्भाव पारिणामिक प्रज्ञा में किया गया है। 206 पारिणामिकी बुद्धि के 21 दृष्टान्तों के नाम - 1. अभयकुमार 2. सेठ 3. कुमार 4. देवी 5. उदितोदय राजा 6. साधु और नन्दिषेण 7. धनदत्त 8. श्रावक 9 अमात्य - मंत्री, 10. क्षपक 11. अमात्यपुत्र (मंत्री पुत्र) 12. चाणक्य 13. स्थूलभद्र 14. नासिकराज सुन्दरीनन्द 15. वज्र 16. चलन आहत 17. आँवला 18. मणि 19. साँप 20. खगी - गेंडा और 21. स्तुपेन्द्र इत्यादि पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण हैं 1207 - दृष्टान्त किसी कुम्हार ने एक मनुष्य को एक बनावटी आंवला भेंट में दिया। वह रंग-रूप और आकार में बिलकुल आंवले के समान था । उसे लेकर उस मनुष्य ने सोचा कि यह रंग-रूप में तो आँवले के समान दिखता है, किन्तु इसका स्पर्श कठोर होता है तथा यह आंवले फलने की ऋतु भी नहीं है। ऐसा सोच कर उस आदमी ने समझ लिया कि यह आंवला असली नहीं है, किन्तु बनावटी है। इसलिए उसने भेंट को खाई नहीं पर प्रदर्शन में रक्खी। यह उस पुरुष की पारिणामिकी बुद्धि थी । बुद्धि का क्रम [149] आवश्यकनिर्युक्ति, नंदी और धवलाटीका में चार बुद्धियों का क्रम औत्पतिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी है, जबकि तिलोयपण्णति 208 में औत्पतिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा का क्रम दिया गया है। इन दोनों क्रमों में से आवश्यकिनिर्युक्ति वाला क्रम अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि पारिणामिकी, कर्मजा, वैनयिकी और औत्पतिकी उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्मत्तर है । नंदी में उक्त चार बुद्धियों का सम्बन्ध मतिज्ञान के साथ बताया है, जबकि तिलोयपण्णति 209 में इनका सम्बन्ध श्रुतज्ञान के साथ किया है। क्योंकि श्रुतज्ञानावरण और वीर्यंतराय का उत्कृष्ट क्षयोपमशम होने पर श्रमण ऋद्धि उत्पन्न होती है, जिसके औत्पतिकी आदि चार भेद हैं। धवला 210 में प्रज्ञा के औत्पतिकी आदि चार भेद किये हैं । 204. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 948 205. विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3617-3622, मलयगिरि पृ. 144 207. आवश्यकनियुक्ति गाथा 949-951, विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञ गाथा 3623-3625 208. तिलोयपण्णति, गाथा 1019 210. धवला पु. 9, पृ. 82 206. षट्खण्डागम, पु. 9 पृ. 84 209. तिलोयपण्णति, गाथा 1017
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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