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________________ [138] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन स्फुरित होने वाला अकारादि वर्ण का ज्ञान भावाक्षर है। व्यंजनाक्षर (द्रव्याक्षर) की अपेक्षा मतिज्ञान अनक्षर है। भावाक्षर की अपेक्षा मतिज्ञान साक्षर है। जैसेकि अवग्रह में भावाक्षर नहीं होता है, इसलिए वह अनक्षर तथा ईहा में भावाक्षर होता है, इसलिए वह साक्षर होता है। श्रुतज्ञान व्यंजनाक्षर और भावाक्षर दोनों की अपेक्षा साक्षर है।39 जिनदासगणि श्रुत को साक्षर और मति को अनक्षर मानते हैं, हरिभद्र और मलयगिरि ने श्रुत को साक्षर और मति को उभयात्मक माना है। 40 7. मुक-अमूक से मति-श्रत में अन्तर कतिपय आचार्य ऐसा मानते हैं कि मतिज्ञान मूक है, क्योंकि वह केवल अपने को ही प्रकाशित करता (स्वप्रत्यायक) है एवं उसमें दूसरों के प्रतीति कराने वाले 'द्रव्याक्षर' का अभाव है। श्रुतज्ञान अमूक (मुखर) है, क्योंकि वह स्व-पर दोनों को प्रकाशित करता (स्व-परप्रत्यायक) है, इस अपेक्षा से दोनों में भेद है। जिनभद्रगणि उपर्युक्त कथन में दोष मानते हुए पूर्वपक्ष से पूछते हैं कि हाथ आदि की चेष्टाएं परप्रबोधक होने से मति भी परप्रत्यायक (दूसरों को प्रकाशित करता) है। जिस प्रकार शब्द से दूसरों को बोध/ज्ञान होता है, वैसे ही करादि की चेष्टाओं से भी होता है। इस प्रकार मतिज्ञान के हेतु भी पर-प्रबोधक हैं (दूसरों को बोध कराते हैं) अत: मति और श्रुत में कोई भेद नहीं है। जिनभद्रगणि मूक और अमूक की अपेक्षा अन्तर को घटित करने के लिए कहते हैं कि पुस्तकों में लिखित अक्षर (शब्द रूप) द्रव्यश्रुत श्रुतज्ञान का असाधारण कारण होने से द्रव्यश्रुत पर-प्रबोधक होता है, किन्तु करादि चेष्टाएं मतिज्ञान का असाधारण कारण नहीं होने के कारण पर-प्रबोधक नहीं है, क्योंकि पर-प्रत्यायक का सम्बन्ध ज्ञान के साथ नहीं, लेकिन ज्ञान के कारण के साथ है। द्रव्यश्रुत तो कारण में कार्य का उपचार करते हुए श्रुतज्ञान रूप से निरूपित होता है, अतः परम्परा से श्रुतज्ञान का द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से परप्रबोधक होना संगत है। किन्तु मतिज्ञान करादि चेष्टाओं से पृथक् होने से तथा परम्परा से मतिज्ञान पर-प्रबोधक नहीं होता है, अत: मति व श्रुत में मूक और अमूक होने का भेद युक्ति संगत घटित होता है।47 जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि ने जिनभद्रगणि का समर्थन किया है। 42 इस प्रकार जिनभद्रगणि ने सात प्रकार से मति और श्रुत में भेद को स्पष्ट करते हुए उनसे पूर्व तथा समकाल में इस सम्बन्ध में जो-जो मतान्तर प्रचलित थे, उनका युक्तियुक्त खण्डन किया है। जिसका बहुलता से बाद वाले आचार्यों ने अनुगमन किया है। तत्त्वार्थसूत्रानुसार काल (विषय) आदि की अपेक्षा से भी मति और श्रुत में भेद हो सकता है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार से है। 8. विषय ग्रहण काल की अपेक्षा दोनों में भेद उमास्वाति कहते हैं कि मति वर्तमानकाल विषयक होता है, जबकि श्रुत त्रिकाल विषयक है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान की अपेक्षा अधिक विशुद्ध है। मतिज्ञान इन्द्रिय-अनिन्द्रिय निमित्त है, यह आत्मा का पारिणामिक भाव है, जबकि श्रुत मनोनिमित्त है, क्योंकि वह आप्त के उपदेशात्मक होता है। 143 139. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 170 एवं बृहवृत्ति 140. नंदीचूर्णि पृ. 51 "अक्कराणगत सुतं अमक्खरं मतिनाणं ति।" -हारिभद्री पृ. 52, मलयगिरि पृ. 142 141. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 172-175 142. नंदीचूर्णि पृ. 51, हारिभद्रीय पृ. 52, मलयगिरि पृ. 142 143. उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयम् च विशुद्धतरं। किंचान्यत् / मतिज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तम्, आत्मने ज्ञस्वाभाव्यात् पारिणामिकं, श्रुतज्ञानं तु तत्पूर्वकमाप्तोपदेशात् भवतीति। -तत्त्वार्थभाष्य 1.20
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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