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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [135] द्रव्यश्रुत-भावश्रुत और मतिज्ञान का संबंध भाष्यकार ने “सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु।"127 गाथा में पुस्तक आदि में लिखित ज्ञान द्रव्यश्रुत, अक्षर लाभ भावश्रुत तथा शब्द और उसका ज्ञान उभयश्रुत कहा है, अतः भावश्रुत का कौन सा अथवा कितना भाग द्रव्यश्रुत में एवं उभयश्रुत में परिणत होता है? इत्यादि शंका के समाधान के लिए जिनभद्रगणि कहते हैं कि बुद्धि द्वारा दृष्ट अर्थ जिसे वक्ता बोलता है, वह मति सहित अर्थात् उभयरूप से श्रुत है अर्थात् श्रुतात्मक बुद्धि से ग्रहण किये हुए जिन अर्थों को श्रुतात्मक बुद्धि से उपयोग सहित होकर ही बोलता है, उसी के द्रव्यश्रुत और भावश्रुत रूप उभयश्रुत होता है। जो ज्ञान बुद्धिदृष्ट अर्थों का प्रतिपादन करने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है। वह मतिज्ञान सहित होता है। प्रतिपादन का संबंध द्रव्यश्रुत से है और मन सहित होने का संबंध भावश्रुत से। भावश्रुत के साथ द्रव्यश्रुत भी होता है। वह जितनी ज्ञान की उपलब्धि है, उतना निरूपण करता है।28 द्रव्यश्रुत और उभयश्रुत से भाव श्रृत अनन्तगुणा अधिक होता है, क्योंकि वाणी (भाषा) क्रम से प्रवृत्त होती है और आयु सीमित होती है अतः भावश्रुत के विषयभूत पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही वक्ता कथन कर सकता है। अतः श्रुतोपलब्धि से गृहीत उपलब्ध पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है, अत: उस अनन्तवें भाग में से ही उपयोग रहित बोले तो द्रव्यश्रुत और उपयोगसहित बोले तो उभयश्रुत रूप होगा।29 (1) कुछेक आचार्य भाष्य की गाथा 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मई सहियं। इतरत्थ वि होज सुयं, उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा।130 में आये 'बुद्धि' का अर्थ श्रुतबुद्धि नहीं करके मति करते हैं अर्थात् मतिज्ञान में दृष्ट पदार्थों को वक्ता जब मतिज्ञान के उपयोग से युक्त होकर बोलता है तो वह श्रुतज्ञान रूप है तथा जो अर्थ मति (बुद्धि) से आलोचित होता है, लेकिन शब्द रूप में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती है, तो बुद्धि से आलोचित ज्ञान अर्थात् श्रुतानुसारी होने पर भी वह मतिज्ञान रूप ही होता है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह उचित नहीं है, क्योंकि भाष्यमाण अर्थ को द्रव्यश्रुत मानने से भावश्रुत का अभाव प्राप्त होता है। जैसेकि शब्द द्रव्यश्रुत रूप है और मति आभिनिबोधिक रूप है तथा दोनों मिलकर भी भावश्रुत नहीं हो सकते हैं, जैसे कि बालू रेत के बहुत से कण मिल जायें तो भी उनमें तैल का सद्भाव नहीं हो सकता है। इसी प्रकार शब्द और मति अलग-अलग तथा संयुक्त रूप होने पर भी भावश्रुत रूप नहीं होते हैं।131 (2) दूसरा कारण बताते हुए वे कहते हैं कि अनभिलाप्य को अभाष्यमाण कहते हैं, जो मतिज्ञान रूप होता है तथा अभिलाप्य (भाष्यमाण) श्रुतज्ञान रूप है। भाष्यमाण अर्थ हमेशा छोटा होने से मतिज्ञानी की अपेक्षा श्रुतज्ञानी हमेशा हीन रहता है। अतः 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मई सहियं / ' पंक्ति का अर्थ निम्न प्रकार से कर सकते हैं कि सामान्य (मति-श्रुत से युक्त) बुद्धि से आलोचित हुए अर्थो में से जो अर्थ श्रुत मति सहित भाषण के योग्य है, चाहे वह अर्थ उस समय नहीं बोला जा रहा है तो भी वह भावश्रुत है, जबकि शेष अर्थ मति है। 127. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 117 128. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 128 129. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 128 बृहद्वृत्ति सहित 130. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 128 131. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 132, 133, 145
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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