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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [133] 4. इन्द्रिय की अपेक्षा से मति-श्रुत में अन्तर सामान्य रूप से यह प्रचलन है कि श्रुतज्ञान केवल श्रोत्रेन्द्रिय से संबंधित है, मतिज्ञान शेष इन्द्रियों से संबंधित है। जिनभद्रगणि तथा मलधारी हेमचन्द्र “सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु।"114 गाथा के आधार से स्पष्ट करते हुए कहते हैं यह एकांत नियम नहीं है, क्योंकि द्रव्यश्रुत (पुस्तक आदि) ही नहीं, शेष चारों इन्द्रियों से जो अक्षर लाभ होता है, वह भी श्रुत है अर्थात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत है और शेष मतिज्ञान है, इस कथन का तात्पर्य यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय के अलावा शेष इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले अक्षर को शेष इन्द्रियोपलब्धि रूप कहा जाता है। अतः समस्त श्रोत्रविषय श्रुतज्ञान है, जबकि श्रोत्रेन्द्रिय और शेष इन्द्रिय विषय के ग्रहण से मतिज्ञान दोनों प्रकार का होता है। पूर्वपक्ष - "सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु। 115 गाथा का अर्थ कतिपय आचार्य करते हैं कि बोले जाने वाले शब्द (सोइन्दिओवलद्धी) श्रुत हैं और इन शब्दों को सुनना मति है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि यदि श्रोत्रेन्द्रिय उपलब्धि ही श्रुत है, तो श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले अवग्रहादि मतिज्ञान के भेद नहीं बन पायेंगे, क्योंकि पूर्वपक्ष ने समस्त उपलब्धि को श्रुत रूप में स्वीकार किया है। यदि उनको मतिज्ञान रूप मानेंगे तो वे श्रुत रूप नहीं होंगे, जिससे श्रोत्रेन्द्रियलब्धि को श्रुत कहना अनुचित है। यदि उनको उभय रूप मानते हैं तो सांकर्य (संकीर्णता) दोष आएगा, जिससे मति और श्रुत में अभेद प्राप्त होगा। इसके सम्बन्ध में कुछ आचार्य कहते हैं कि वक्ता का शब्द श्रुत है और वही शब्द श्रोता के लिए मति है। यह भी संगत नहीं है, क्योंकि इसमें दो दोष आते हैं। प्रथम तो जो भी शब्द होता है, वह वक्ता और श्रोता दोनों के लिए द्रव्यश्रुत रूप ही होता है। दूसरा यहाँ ज्ञानसम्बन्धी अधिकार में पुद्गल रूप शब्द से कथन सिद्धि नहीं होती है। यदि ऐसा कहो कि श्रोत्रेन्द्रिय शब्द में कारण और कार्यभूत है, इसलिए उपचार से शब्द वक्ता के लिए श्रुत और श्रोता के लिए मति हैं, तो पूर्वपक्ष का ऐसा कहना भी अयोग्य है, क्योंकि शब्द-ज्ञान तो भेद रहित ही होता है। अतः इन दोषों के परिहार के लिए ऐसा मानना उचित है कि बोलने वाले और सुनने वाले दोनों के शब्द द्रव्यश्रुत हैं, इसलिए उपर्युक्त गाथा का अर्थ ऐसा कर सकते हैं कि किसी भी इन्द्रिय से प्राप्त हुआ श्रुताक्षरलाभ श्रुत है जो कि द्रव्यश्रुत रूप है। इसके अलावा अक्षरलाभ मति है अर्थात् 'श्रोत्रेन्द्रिय उपलब्धि श्रुत ही है' ऐसा नहीं मानकर 'श्रोत्रेन्द्रिय उपलब्धि श्रुत है' ऐसा स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि सभी श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि श्रुतानुसारिणी नहीं होकर मात्र अवग्रहादि रूप भी होती है। इसलिए श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तक अवग्रहादि मतिज्ञान रूप है।16 शब्द के समान भावश्रुत में कारण होने से पुस्तक, पत्र (कागज) आदि में लिखित शब्द भी द्रव्यश्रुत है। केवल श्रोत्रेन्द्रिय से प्राप्त शब्द श्रुत है, ऐसा नहीं है, क्योंकि शेष चक्षु आदि इन्द्रियों से जो अक्षर लाभ होता है अर्थात् परोपदेश अथवा अर्हत् वचन के अनुसार जो अक्षर की उपलब्धि होती है, वह भी श्रुतानुसारी होने से भावश्रुत रूप है। शेष इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान में प्रतिभासित अक्षर श्रोत्रोपलब्धि युक्त है, क्योंकि श्रवण से उत्पन्न हुआ समस्त शब्दोल्लेख श्रोत्र उपलब्धि रूप ही है। पूर्वपक्ष - जो 114. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 117 एवं बृहवृत्ति पृ. 65 115. 'सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु।' - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 117 116. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 118-121, 123
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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